Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ (viii) जनविद्या को प्रकट करती है। यह काव्य अपूर्ण मिलता है इसीलिए इसका प्रकाशन प्रभी संभव नहीं हो सका है। - इन दोनों काव्यों के अध्ययन से पता चलता है कि मुनि नयनन्दी एक परोपकारी और निष्काम सन्त थे। उनका उद्देश्य धर्म का सन्देश काव्य की भाषा में जन-जन तक पहुँचाना था । वे लोक को असत् से हटाकर सत् की ओर प्रवृत्त करना चाहते थे। अपने इस पवित्र उद्देश्य में वे सफल हुए हैं । इस अंक में अपने-अपने विषय के अधिकारी विद्वानों ने कवि के व्यक्तित्व के अतिरिक्त उसके कर्तृत्व की विशेषताओं को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा/परखा है। उनकी काव्यकला का वैभव, अलंकार-योजना, छान्दस वैशिष्ट्य, रचना का प्रयोजन, उसकी उदात्तता आदि का स्वरूप पाठकों को इस अंक में देखने को मिलेगा। पाठक अपभ्रंश भाषा के व्याकरण से भी परिचित हों, उसमें उनकी गति हो सके इसलिए 'हेमचन्द्र-अपभ्रंश-व्याकरणः सूत्र विवेचन' इस शीर्षक से एक नई लेखमाला भी चालू की जा रही है। इस लेख के लेखक हैं सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के दर्शनविभाग के प्राचार्य, डॉ. कमलचन्द्र सोगानी । डॉ. सोगानी अपने विषय के मान्य विद्वान् तो हैं ही वे अपभ्रंश भाषा को भारतीय भाषाओं की श्रृंखला में उचित स्थान पर जोड़ने की साध रखनेवालों में प्रमुख हैं। . संस्थान समिति और सम्पादक मण्डल के सदस्यों, अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं तथा इस अंक में प्रकाशित रचनाओं के लेखकों के प्रति कृतज्ञता का भाव अर्पित है। इस अंक के प्रकाशक एवं मुद्रकों के भी हम प्राभारी हैं जिनके निष्ठायुक्त सहयोग के बिना यह बड़ा प्रयत्न प्रकाश में नहीं आ सकता था। (प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन सम्पादक

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116