Book Title: Jain Vidya 07
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 11
________________ प्रकाशकीय भाषाविज्ञान एवं साहित्य के अध्येताओं के समक्ष मुनि नयनन्दी विशेषांक के रूप में 'जनविद्या' का सातवां अंक सहर्ष प्रस्तुत है। विशेषांक मुनि नयनन्दी विरचित अपभ्रंश भाषा के चरितात्मक खण्डकाव्य सुदंसणचरिउ पर आधारित है। अपभ्रंश अर्थात् 'जनबोली' । 'जनबोली' विकासशील होती है। विकासशील होना बोली के जीवित होने का सूचक है, उसकी जीवन्तता का द्योतक है अर्थात् वह बोली 'अभी बोली जाती है, प्रयोग में लाई जाती है ।' विकासशील होने के कारण बोली बोलचाल की भाषा तो बनी रहती है किन्तु उसमें साहित्य-लेखन बहुत कम होता है। इस परिपाटी के विपरीत जनबोली अपभ्रंश में साहित्यसृजन कर मनीषियों ने 'मानव अपनी बोली, अपनी भाषा में कही अथवा सुनी गई बात को अधिक सुगमता से एवं भली प्रकार ग्रहण करता हैं' इस सत्य को अनावृत किया है। मानवीय स्वभाव है कि वह अपनी बोली' या 'अपनी भाषा' में कही गई, मुनी गई अथवा पढ़ी गई बात को समझने में अधिक सक्षम, समर्थ एवं अधिकृत होता है अपेक्षाकृत किसी अन्य ‘संस्कारित' भाषा में समझने के । माज हमारी अपनी भाषा हिन्दी' के प्रति हमारे देश में एक उदासीनता व हीनता की भावना व्याप्त है । इस भावना, इस प्रवृत्ति के दूरगामी परिणाम कितने घातक होंगे, आज हम इससे अनभिज्ञ हैं। यह प्रवृत्ति एक उपवन में पल्लवित पेड़-पौधों को उनकी जड़ों से काट देना और फिर उस उपवन को गुलज़ार देखने की इच्छा रखने जैसी है। अपने देश व समाज के विकास के लिए हमें अपनी भाषा हिन्दी को खुले दिल से अपनाने की आवश्यकता है। _ 'हिन्दी' को उसका वास्तविक स्थान व सम्मान प्रदान करने के लिए आवश्यक है उसकी 'मूल प्रकृति' को जानना । 'अपभ्रंश' हिन्दी की मूल प्रकृति है । 'हिन्दी' में अपभ्रंश की प्राणधारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है। हिन्दी मुख्यतः अपभ्रंश की जीवन्त परम्परा को लेकर ही आगे बढ़ी है । यथार्थतः अपभ्रंश लगभग सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषामों की जननी है।

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