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जैन तत्त्व मीमांसा की armirmwar.mmmmmmmmwwwwwwrimar ...
अर्थात् व्यवहार धर्म से संसार के सुख मिलते हैं। और . उमी व्यवहार धर्मके निमित्त से ही अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्त करने की इस संसारी जीव में योग्यता प्राप्त होती है। अर्थात् उत्तम देश काल का पाना, उत्तम कुल का पाना, उत्तम शरीर का पाना, उत्तम धर्म का पाना, उत्तम सत्संगति का पाना उत्तम व्रतों का धारण होना इत्यादि ये सब योग्यता इस जीव को व्यवहार धर्म के आश्रय से ही प्राप्त होती है और योग्यता प्राप्त हुए विना जीव को मोक्ष की भी प्राप्ति दुर्लभ हो नहीं संभव ही है । इसलिये जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक व्यवहार को छोडकर अधर्म का सेवन कर संसार में दुःखी रहना महान मूखता है । जैसाकि ग्रीष्म ऋतु की धूप में छाया में न बैठकर धूप में बैठने के समान है इसलिये जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक व्यवहार ही शरण है ऐमा उक्त छन्द का अभिप्राय है। अत: जो व्यवहार को छोडने से परमार्थ की सिद्धि होना मानते है, वे विष में अमृतकी कल्पना करते हैं। कुन्दकुन्दाचार्य कहते है कि जे जीव श्रद्धा के तथा ज्ञान चारित्र के पूर्ण भाव को नहीं पहुंच पाये हैं साधक अवस्था में अवस्थित हैं उनके लिये व्यवहार का ही उपदेश देना योग्य है। "सुद्धो सुद्धादेसो णादब्बो परमभावदरिसीहिं । व्यवहार देसिदो पुण जेदु अपरमे ठिदा भावे" । १२ समयमा
अर्थात् परमभावदर्शी जे शुद्ध नय ताईपहुंचि श्रद्धागन भये तथा पूर्णज्ञान चारित्रवान् भये तिनिकरितो सुद्ध का है श्रादेश कहिये आज्ञा उपदेश जामें ऐसा शुद्ध नय जानने योग्य है । वहुरि जे पुरुष अपर भाव कहिये श्रद्धा के तथा ज्ञान चारित्र के पूर्ण भाव को नहीं पहुंचे हैं-साधक अवस्था में तिष्ठे हैं। तिनिके
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