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भी इनका सम्मान करता था। इन्हीं के उपदेश से शाकम्भरी चाहमान नरेश पृथ्वीराज प्रथम ने रणथम्भौर के जैन मंदिर पर स्वर्ण कलश चढ़ाया था। ग्वालियर का राजा भुवनपाल और सौराष्ट्र का राजा खंगार इनके प्रभाव में था। इन्हीं के शिष्य हेमचन्द्रसूरि हुए। इनके परिवार में विजयसिंहसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, विभूतिचन्द्रसूरि, लक्ष्मणगणि, मुनिचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि, देवप्रभसूरि, यशोभद्रसूरि, नरचन्द्रसूरि, नरेन्द्रप्रभसूरि, पद्मप्रभसूरि, श्रीतिलकसूरि, राजशेखरसूरि, वाचनाचार्य सुधाकलश आदि विद्वान् आचार्य हुए हैं। मलधारी हेमचन्द्रसूरि द्वारा अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति टीका, विशेषावश्यकभाष्यबृहद्वृत्ति, शतकविवरण, उपदेशमालावृत्ति आदि, विजयसिंहसूरि द्वारा धर्मोपदेशमालावृत्ति (संवत् ११९१), श्रीचन्द्रसूरि रचित मुनिसुव्रतचरित्र (संवत् ११९३), लक्ष्मणगणि रचित सुपार्श्वनाथचरियं (संवत् ११९९), देवभद्रसूरि रचित संग्रहणीवृत्ति, देवप्रभसूरि रचित पाण्डवचरित्र महाकाव्य, नरचन्द्रसूरि रचित कथारत्नसागर और अलंकारमहोदधि (संवत् १२८०) टीका (संवत् १२८२), राजशेखरसूरि रचित न्यायकंदलीपंजिका (संवत् १३८५), सुधाकलश रचित संगीतोपनिषत्सारोद्धार (संवत् १४०६) रचनाएँ प्राप्त होती हैं। संवत् ११९० से १६९९ तक ११६ मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। एक पट्टावली से श्रीचन्द्रसूरि के हरिभद्रसूरि, सिद्धसूरि और मानदेवसूरि शिष्य थे। ३८. हारीजगच्छ - पाटण और शंखेश्वर के मध्य हारीज स्थान से इसका उद्भव माना जाता है। कातन्त्र व्याकरण पर दुर्गसिंहवृत्ति पर अवचूर्णि संवत् १५५६ की कृति प्राप्त होती है। संवत् १३३० से लेकर १५७७ तक २१ लेख प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार इस विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह में ३८ गच्छों का विवरण दिया गया है जिनमें से काम्यकगच्छ, कृष्णर्षिगच्छ, चन्द्रकुलगच्छ, नागेन्द्रगच्छ, निवृत्तिकुल और विद्याधरकुल यह छः प्राचीन परम्पराएँ हैं। और शाखाओं में आगमिकगच्छ, कंवलागच्छ, चैत्रगच्छ, सलखणपुराशाखा,
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