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से लेकर १५१० तक इनके अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं। प्रद्युम्नसूरि जो कि प्रथम आचार्य धनेश्वरसूरि के दादागुरु थे, समरादित्य संक्षेप आदि में इनकी चर्चा मिलती है। सन्मतितर्कटीकाकार अभयदेवसूरि का समय ११वीं शताब्दी निश्चित किया गया है। सिद्धसेनसूरि ने प्रवचनसारोद्धार टीका संवत् १२७८, माणिकचन्द्रसूरि ने पार्श्वनाथचरित्र संवत् १२७६, श्रीचन्द्रसूरि (पार्श्वदेवगणि) की न्यायप्रवेशवृत्ति पंजिका संवत् ११७९ आदि कई कृतियाँ प्राप्त हैं। ये श्रीचन्द्रसूरि आबू पर मन्त्रीश्वर पृथ्वीपाल द्वारा कराई गई प्रतिष्ठा के समय संवत् १२०६ में विद्यमान थे। देवप्रभसूरि ने श्रेयांसनाथ चरित्र संवत् १२४२ में रचना की। इन्हीं का तत्त्वबिन्दु और प्रमाणप्रकाश भी अनुपलब्ध है। माणिकचन्द्रसूरि-पार्श्वनाथचरित्र, शांतिनाथचरित्र, काव्यप्रकाशटीका आदि प्राप्त है। प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभावकचरित्र की संवत् १३३४ में रचना की। ३३ वायडगच्छ - थारापद्र और मोढगच्छ के बाद वायडगच्छ का नाम उल्लेखनीय है। वायट स्थान से इसकी उत्पत्ति हुई है। इसीलिए वायड का पर्याय वायटीय भी मिलता है। संवत् ११३९ से १३४९ तक ११ लेख प्राप्त होते हैं। किन्तु इसके पूर्व भी १०८६ का अभिलेख साक्ष्य प्राप्त है। वायड नगर में जीवन्त स्वामी का एक मन्दिर था। प्रभावकचरित्र के अनुसार विक्रमादित्य के मन्त्री लिम्बा द्वारा महावीर जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया गया था। प्रभावकचरित्र के अनुसार वायडगच्छीय जीवदेवसूरि ने रुष्ट ब्राह्मणों द्वारा मृतगाय को महावीर मन्दिर के सन्मुख रखा, जिसको उन्होंने अपने चमत्कार से दूर किया। हर्षपुरीयगच्छ के लक्ष्मणगणि ने सुपार्श्वनाथचरित्र में (संवत् ११९४) इस गच्छ के साहित्यिक क्रियाकलापों का वर्णन किया है। अमरचन्द्रसूरि के पद्मानन्दमहाकाव्य, काव्यकल्पलतावृत्ति आदि ग्रन्थ प्राप्त हैं। जिनदत्तसूरि रचित विवेकविलास और शकुनशास्त्र ये दो ग्रन्थ प्राप्त हैं। ३४. विद्याधरकुल / विद्याधरगच्छ - यह कुल स्थविरावली से सम्बन्ध रखता है। डॉ. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने अम्बिका प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
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