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आदि प्राप्त होते हैं। प्रो. एम.ए. ढांकी के मतानुसार इस गच्छ के मुनिजन चैत्यवासी थे और पाटला, धंधुका, अणहिलपुर पाटण और मांडल में इनके चैत्य थे। पाटला स्थित मोढ़चैत्य भी मोढेरा के महावीर मंदिर के समान प्राचीन रहा है। जिनप्रभसूरि रचित कल्पप्रदीप के अनुसार ८४ तीर्थस्थानों में इसकी गणना की जाती है। खरतरगच्छीय विनयप्रभसूरि ई.सन् १३७५
और जिनतिलकसूरि ने १५वीं शताब्दी में यहाँ स्थित नेमिनाथ जिनालय का उल्लेख किया है। प्रभावकचरित्र के अनुसार पाटण में भी एक मोढ़चैत्य था जिसकी प्रतिष्ठा बप्पभट्टसूरि ने करवाई थी। मण्डली वर्तमान मांडल में वस्तुपाल के समय एक मोढ़चैत्य था। मोढवणिक की जाति यहीं से उत्पन्न हुई थी। ३१. यशोभद्रसूरिगच्छ - चन्द्रकुलीय परम्परा में यशोभद्रसूरिंगच्छ भी माना जाता है और यशोभद्रसूरि ही इसके संस्थापक थे। साधारणकवि की विलासवई संवत् ११२३ की प्रशस्ति में इसको चन्द्रकुलीय माना है। इस गच्छ के कतिपय ही लेख प्राप्त होते हैं। ३२. राजगच्छ - चन्द्रकुलीय परम्परा में राजगच्छ भी एक प्रमुख गच्छ रहा है। इसमें प्रद्युम्नसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, मानतुंगसूरि और प्रभाचन्द्रसूरि आदि प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। इसके अभिलेखीय साक्ष्य बहुत कम प्राप्त होते हैं। धनेश्वरसूरि (द्वितीय)-सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धारटीका (संवत् ११७१), सिद्धसेनसूरि-प्रवचनसारोद्धारटीका (संवत् १२७८), मानतुंगसूरि- श्रेयांसचरित्र (संवत् १३३२), प्रभाचन्द्रसूरि-प्रभावक चरित्र (संवत् १३३४), अभयदेवसूरिसन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनी टीका की रचना की। श्रीचन्द्रसूरि का दीक्षा नाम पार्श्वदेवगणि था। अज्ञात कर्तृक राजगच्छीय पट्टावली में ननसूरि को इसका आदिम आचार्य माना गया है। प्रो. एम.ए.ढाकी के मतानुसार राजगच्छीय पट्टावली में उल्लिखित अजित-यशो-वादी वस्तुत: उत्तराध्ययनसूत्र सुखबोधा टीका के अनुसार वादीदेवसूरि ही होना चाहिए। संवत् ११२८
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