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६वीं शताब्दी का माना है। आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरि हुए हैं जिनकी आवश्यक टीका आदि अनेकों ग्रन्थ आज भी प्राप्त हैं। पादलिप्तसूरिनिर्वाणकलिका संवत् ९५० में उल्लेख है। जाल्हिरगच्छीय देवप्रभसूरि पद्मप्रभचरित्र की प्रशस्ति में काशहद और जालिहरगच्छ को विद्याधरकुलीय मानते हैं। संवत् १४०८ उदयदेवसूरि से लेकर १५३४ हेमप्रभसूरि तक १३ लेख प्राप्त होते हैं। ३५. संडेरगच्छ - सांडेराव में उत्पन्न यह संडेरगच्छ १०वीं शताब्दी में प्रसिद्धि में आया। यह संडेरगच्छ चैत्यवासी आम्नाय के अन्तर्गत था। इसके प्रमुख आचार्य यशोभद्रसूरि हुए। यशोभद्रसूरि, शालिसूरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि, ईश्वरसूरि इसी नाम की पट्ट-परम्परा प्राप्त होती है। दानदाता प्रशस्तियों में षड्विधावश्यकविवरण संवत् १२९५, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के अन्तर्गत महावीरचरित्र संवत् १३२४, कालपुरुष एवं कालिकाचार्यकथा के प्रतिलिपियों के भी उल्लेख मिलते हैं। १०३९ से लेकर १७३२ तक शताधिक लेख प्राप्त होते हैं। ३६. सरवालगच्छ - यह गच्छ चैत्यवासियों से सम्बद्ध माना जाता है। बाद में चन्द्रकुलीय (चन्द्रगच्छीय) शाखा के रूप में इसका विकास हुआ। संवत् १११० से लेकर १२८३ तक कुछ ही लेख प्राप्त होते हैं। सरवालगच्छीय समुद्रघोषसूरि ने पिण्डनियुक्ति शिष्यहितावृत्ति का लेखन संवत् ११६० में करवाया था। ३७. हर्षपुरगच्छ / मलधारीगच्छ - सुविहितमार्गीय गच्छों में हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का विशिष्ट स्थान है। हर्षपुर वर्तमान हरसोर नामक स्थान से इसका उद्भव हुआ है। ग्रन्थ की गुर्वावली में जयसिंहसूरि का नाम आदिम आचार्यों में मिलता है। उनके शिष्य अभयदेवसूरि को जिन्हें चालुक्य नरेश कर्ण संवत् ११२०-११५० से मलधारी बिरुद प्राप्त हुआ। यही बिरुद इस गच्छ के नाम के रूप में प्रचलित हो गया। सिद्धराज जयसिंह
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