Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुछ विचारकों का मत है कि पुरुष अथवा ईश्वर ही इस जगत् का कर्ता है।' यहाँ हम संक्षेप में इन मान्यताओं का परिचय प्रस्तुत करते हैं ।
कालवाद-कालवादियों की मान्यता है कि संसार के समस्त पदार्थ तथा सुख-दुःख कालमूलक हैं । काल ही समस्त भूतों को सृष्टि करता है, उनका संहार करता है । काल ही प्राणियों के समस्त शुभाशुभ परिणामों का जनक है। काल ही प्रजा का संकोच और विस्तार करता है । इस प्रकार काल ही जगत् का आदिकारण है । अथर्ववेद में एक कालसूक्त है जिसमें बताया गया है कि काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया, काल के आधार पर सूर्य तपता है, काल के ही आधार पर समस्त भूत रहते हैं । काल के ही कारण आंखें देखती हैं, काल ही ईश्वर है, काल प्रजापति का भी पिता है, काल सर्वप्रथम देव है, काल से बढ़कर कोई अन्य शक्ति नहीं है, काल सर्वोच्च ईश्वर है इत्यादि । महाभारत में भी काल की सर्वोच्चता स्वीकार की गई है। उसमें बताया गया है कि कर्म अथवा यज्ञयागादि सुख-दुःख के कारण नहीं हैं। मनुष्य काल द्वारा ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है। समस्त कार्यों का काल ही कारण है इत्यादि ।।
स्वभाववार-स्वभाववादी की मान्यता है कि संसार में जो कुछ होता है, स्वभाव से ही होता है । स्वभाव के अतिरिक्त कर्म आदि कोई भी कारण जगत्वैचित्र्य की रचना में समर्थ नहीं। बुद्धचरित में स्वभाववाद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि कांटों का नुकीलापन, पशु-पक्षियों की विचित्रता आदि सभी स्वभाव के कारण ही हैं । किसी भी प्रवृत्ति में इच्छा अथवा प्रयत्न का कोई स्थान नहीं है। सूत्रकृतांगवृत्ति (शीलांककृत) में भी यही बताया गया है कि कांटों की तीक्ष्णता, मृग-पक्षियों का विचित्रभाव आदि सब कुछ स्वभावजन्य ही हैं । गीता
१. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् । संयोग एषां न स्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः ।
-श्वेताश्वतरोपनिषद्, १, २. २. देखिए-Dr. Mohan Lal Mehta : Jaina Psychology,
पृ० ६-१२; पं० महेन्द्रकुमार जैन : जैनदर्शन, पृ० ८७-११९;
पं० दलसुख मालवणिया : आत्ममीमांसा, पृ० ८६-९४. ३. अथर्ववेद, १९, ५३-४, ४. कालेन सर्व लभते मनुष्यः......
-शान्तिपर्व, २५, २८, ३२. ५. बुद्धचरित, ५२.
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