________________
प्रथम महिछेद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
इसी बोध के फलस्वरूप उसे अत्यधिक आनन्दानुभूति हुई और इतनी हुई कि उसने नि:संकोच अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। उसके पास स्वयं के अतिरिक्त कुछ भी शेष न था सो उसने स्वयं को भी उसे समर्पित कर दिया, क्योंकि वह उसकी सहाचरी थी।
किन्तु उसका यह समर्पण अपूर्व, अलौकिक और नि:स्वार्थ था। उसके बदले हुए स्वरूप को देखकर किसी ने उसे पागल, किसी ने प्रेमी और किसी ने निरंकुश (निरङ्कशा कवयः) कहा। अस्तु! कहने का आशय मात्र इतना है कि एक ने दूसरे में दृढ़ता और दूसरे ने 'पल-पल' परिवर्तित वेश (स्वरूप) देखा। दोनों ने एक-दूसरे को अपने अनुरूप पाया और इसी अनुरूपता वश दोनों में अन्योऽन्य सम्बन्ध स्थापित हो गया अर्थात् वे एक दूसरे के पूरक बन गये। काव्य की पूर्णरूपेण प्रकाशित करने के पूर्व उसके कर्ता 'कवि' की विवेचना प्रत्येक दृष्टि से उचित प्रतीत होता है, क्योंकि कर्ता के अभाव में क्रिया भ्रामक न सही, उतनी प्रभावशाली नहीं होती, जितनी कि उससे अपेक्षा होती है।
कवि
___कवते श्लोकान् ग्रथते, वर्णयति वा कवि' श्लोक रचना या वर्णन करने वाले को कवि कहते हैं। ऐसी व्युत्पत्ति 'अमरकोश' के टीकाकार भानुजीक्षित ने की है। 'शब्दकल्पद्रुम' में 'कुशब्दे' धातु से 'अचइ' सूत्र द्वारा 'इ' प्रत्यय करने पर कवि की उत्पत्ति सिद्ध की गयी है। विद्याधर ने एकावलि में कवयति- इति कवि, तस्य कर्म काव्यम्' ऐसी व्युत्पत्ति की है। 'ध्वन्यालोक'