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प्रथम सहिद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
कराना चाहता है" अपनी इस विकलता को दूर करने के लिए उसने क्या नहीं किया? कभी जाही के तट पर तपरत हो, अपने जीवन का विसर्जन, तो कभी देवी मन्दिर में जाकर अपनी जिह्वा का उच्छेदन। कभी पाया'नवरत्नों की शोभा का सम्मान' तो कभी देश- निष्कासन का अपमान।
(काव्य) इतिहास साक्षी है, अपनी इस घनघोर तपस्या में उसने घोर कष्ट उठाया। किन्तु संसार की कोई भी प्रबलतम् बाधा उसे (उसके) पथ से विरत न कर सकी। वह दृढ़ था और अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु स्थिर मना। भला स्थिर मन वाले दृढ़ व्यक्ति और नीचे की ओर मुख किये हुए जल प्रपात को रोकने में कोई समर्थ है, नहीं- कदापि नहीं।
फिर क्या था, बस उसकी दृढ़ता के समक्ष प्रसन्न होकर 'प्रकृति देवी', ने उसे आजस्र वरदान (प्रसाद) दिया। वह प्रसाद और कुछ नहीं- वाणी था। फल प्राप्त होते ही उसका तपोजन्य कष्ट दूर हो गया, उसमें नवीनता आ गई और अपने कर्म के प्रति नया उत्साह। वह धीरे-धीरे अपने 'काव्य' कर्म में प्रवृत्त हुआ और फिर अन्ततः (अपने जीवन काल में ही) उसने किसी सीमा तक उस (काव्य) की सम्पूर्ण सीमाएं तोड़ दी। दूसरे शब्दों में वह हद से भी आगे निकल गया।
उपर्युक्त कार्य सिद्धि के लिए उसके पास- 'सार्थवती वाणी' नामक अस्त्र था और उसने अपने इस अस्त्र का खूब प्रयोग किया।
शायद वह 'अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का सशक्त माध्यम है और 'त्याग प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन" जान गया था।