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जैन-क्रियाकोष । कंदमूल फल खाय करि, करै जु वनको वास । तिनको वनवासो वृथा, होय दयाको नास ।। बिना दया तप है कुतप,जाकरि कर्म न जाय। हिंसक मिथ्यामत धरा नरक निगोद लहाय ।।
सो अपनों आतमा, तैसे सबही जीव । यह लखि करुणा आदरौ भाखें त्रिभुवन पीव ।।
छन्द जोगीरासा काहेके ते तापस दुष्टा, करुणा नाहिं धरावें। कर अपनी आरम्भ सपष्टा, जीव अनेक जरावें। ते तजि कपडा तपके कारण, धारें शठमति चर्मा। ते न तपस्वी भवदधि तारण, बाधे अशुभ जु कर्मा । रिषि तौ ते जे जिनवर भक्ता,नगन दिगम्बर साधा। भव तनु भोगथकी जु विरक्ता, करै न थिर चर बाधा ॥ मैत्री मुदिता करुणा भावा, अर मध्यस्थ जु धारै । राग दोष मोहादि अभावा, ते भवसागर तारै ॥ बिना दया नहिं मुनिव्रत होई,दया बिना न गृही है। उभय धर्मको सरवस करुणा,जा बिन धर्म नहीं है। दया करौ मुख सब भाखें भेद न पावें पूरा। बासी भोजन भखि करि भोंदू रहे धर्म दूरा ।। बासी भोजन माहि जीव बहु, भखें दया नहिं होई। दया बिना नहिं धर्म न व्रत्ता, पावें दुरगति सोई॥ अत्याणा मंधाण मधाणा, कांजी मादि महारा। करें विवेक बाहिरा कुखुधी, निनके दया न धारा ।।