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जन-क्रियाकोष। निज घरके अथवा परठाम, ते मुक्ते राखे धाम ॥३०॥ तिनपरि वैसे और गु त्याग, है जाको व्रतसं अनुराग। सचित वस्तुको भोजन निद, शाहि निषेधे त्रिमुवनचंद ॥ ३१॥ मुनि मार्या त्यागेहि सचित्त, उत्तम श्रावक लेहि अचिरा ।। पंचम पडिमा यादि सुधीर, एकादस पड़िमा लों वीर ।। ३२ ।। कबहु न लेइ सचित्त अहार, गहै सचित्त वस्तु अबिकार । पहली पडिमा आदि चतुर्थ, पडि मा लो ले अचितहि अर्थ ॥ ३॥ पे मनमें कम्पै सु विवेक, तमै सचित्त जु वस्तु अनेक । केइक राखी तामें नेम, नितप्रति धारै ब्रतसो प्रेम ॥३४॥ कहा कहावै वस्तु सचित्त, सो धारौ भाई निज चित्त । पत्र फूल फल छाडिइत्यादि, कुंपल मूल कंद बीजादि ॥ ३५ ॥ पृथ्वी पाणी अग्नि जु वायु एसहु सचित्त कहे जिनराय । जीव सहित जो पुदगल पिंड, सो सव सचित तजे गुणपिंड ३६ ये सहु जाति सचित्त तजेय, सो निहचै जिनराज भजेय । जो न सर्वथा त्यागी जाय, तो कैयक ले नेम धराय ॥ ३७॥ संख्या सचित वस्तुकी कर सकल वस्तुका नियम जु धरै। गिनती करि राखै सब वस्तु, नबाहि जानिये ब्रत प्रशस्त ।। ३८ ॥ लाडू पेडा पाक इत्यादि, औषधि रस अर चूरण आदि । बहुत वस्तु करि जे निप नेह, एक द्रब्य जानों बुध तेह ॥३॥ वस्तु गरिष्ट न खावे जोग , ए सब काम तने उपयोग। जो कदापि ये खाने पर, अलपथको अलपजु आहरै ॥४०॥ सत्रह नेम चितारै नित्य, जानो ए सहु ठाठ अनित्य। प्रातथको सध्यालो करै फुनि सध्या ममये वुध धर ॥४१ ।।