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जन-क्रियाकोष। मुनि उतरे माहारकों, करि ऐसी परतिश। मनमैं तोऊ छाटकों (१) सो पारौ तुम विज्ञा एक घरें नहिं पाय हो, तौ न मान घर जाहुँ ।
और कछु नहिं खायहों, यह मिलि है तौ वाहुं ॥६६॥ अथवा ऐसी मन धरै, या विधिके तन चीर । पहिरे होगी प्राविका तौ लेहूं अन नीर ॥७॥ तथा विचार सो सुधी कारौ वलबा आहि । धरै सींग परि गुडडला,मिले पंथमैं मोहि ॥७॥ जाऊ भोजन कारनें, नातरि नहीं अहार । इत्यादिक जे अटपटी, करें प्रतिज्ञा सार ॥७२॥ प्रतपरि संख्या तप लहै, मुनिराय महंत । श्रावक हू इह तप कर, कौन रीति सुनु संत ॥७॥ प्रातहि संख्या विधि कर, धारइ सतरा नेम । तासम कबह न करे, परिसंख्यासों प्रेम ॥७॥ धारि गुप्ति चितवै सुघी, अपने चित्त मंझार । साखि जिनेश्वर देव हैं, ज्ञायक होय अपार ॥७॥ और न जाने बात इह, जो घार बुध नेम । नहीं प्रेम भवभावसों, जप तप व्रतसों प्रेम ॥७६।। अनायास भोजन समे, मिलि हैं मोदि कदापि । रूखी रोटो नंगकी, लेह और न क्वापि ॥७॥ इत्यादी ने अटपटी, धरै प्रतिज्ञा धीर । ब्रतपरिसंख्या तप लहैं, ते श्रावक गंभीर ७८॥ मन सुनि चौथा तब महा, रस परित्याग प्रवीन ।