Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 198
________________ १६८ जैन-क्रियाकोष पट अनायतन त्यागिवौ, अतोचार महिं लाग॥ ४॥ ते भाचे गुरु पंचविधि बहुरि मूढता तीन । तभिवौ सातों विसनको, भय सातों नहिं कीन ।। ५॥ ए सब पहले हू कहै, अब हू भार्षे वीर । बार बार सम्यक्तकी, महिमा गाव धीर ।। ६ ।। अङ्ग निशंकित आदि बहु, मठ गुण संवेगादि । अष्ट मदनिको त्याग फुनि, अर वसु मूलगुणादि । ॥ ७॥ सात विसनको त्यागिवौ, अर तजिवौ भय सात । तीन भूढता त्यागिवौ, तीन शल्य फुनि भ्रात ॥ ८॥ षट अनायतन त्यागिवौ, अर पांचों अतिचार । ए त्रेमठ त्यागै जु कोउ, सो समदृष्टी सार ॥ ६॥ चौथे गुण ठाणे तनी, कही बात ए भ्रात । है अपत परि जगततै, विरकितरूप रहात ॥ १० ॥ नहिं चाहै मनत दसा, चाहे व्रत्तविधान । मनमैं मुनित्रलको लगन सो नर सम्यकवान ॥११॥ जैसे पकौं चोरकू दे तलवर दुख धोर। परक्स पडि बंधन सहै, नहीं चोरको जोर ।। १२॥ त्यू हि अप्रत्याख्यानने, पकरयो सम्बकवन्त । परवस भव्रतमैं रहै चाहै व्रत महन्त ॥ १३ ॥ थाहै बोर जु छटिवौ, यथा बंधते वीर। चाहै गृह छूटियौ, त्यों सम्यकपर धीर ।। १४ ॥ सान प्रकृतिके त्यागते, जेती थिरता जोय । तेती बोये ठाणि है, इह जिन आश होय ॥ १५ ॥ ग्यारा व्रत वर्णन दोहा-यारा प्रकृति वियोग”, होय पंचमो ठाण । तव पडिमा धारे सुषी, एकादश परिमाण ।। १६ ।। तिनके नाम सुनों सुषी, जा विधि कहै जिनंद । धाएँ प्राक्क धीर जे, तिन सम नाहिं नरिंद २५॥

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