Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 214
________________ Ammon २१४ जैन-क्रियाकोष। जाके घटमैं दया पक्त्तिा । यह जलगालगकी विधि भाई, गुरु महा अनुसार बताई ॥४३॥ दोहा-अब सुनि रात्रि अहारका, दोष महा दुखदाय । द्वै महुरत दिन जब रहै, तब से त्याग कराय ।।८४॥ दिवस महूरत चढ़े, तबलों अनसन होय। निशि अहार परिहार सो, व्रत न दूजो कोय ॥८५|| निशिभोजनके त्यागते, पावै उत्तम लोक। सुर नर विया धरनके, लहै महासुख थाक ॥८६॥ जे निशि भोजन कारका, तेहि निशाचर आन । पावै नित्य निगोदके, जनम महां दुखखानि ॥८॥ निशि वासरको भेद नहिं, खात तृप्ति नहिं होय । सो काईके मानवा, पशुहू अधिकोय ।। ८८ ॥ नाम निशाचर चारको, घोर समाना तेहि । चरै निशाको पापिया, ह, धर्ममति अहि ॥ ८६ ।। बहुरि निशाचर नाम है, राक्षसको श्रुतिमाहि। राक्षस सम जो नर कुधी, रात्रि अहार कराहिं ॥६०॥ दिन भोजन तजि रैनिमैं, भोजन करें विमूढ । ते उलूक सम जानिये, महापाप आरूढ || मास अहारी सारिखे, निशिभोजी मतिहीन । जनम जनम या पापतै, . लहें कुगति दुखदीन ।। ६२॥ नाराच छन्द - उलूक काक औ, बिलाव श्वान गर्दभादिका । गहै कुञ्जन्म पापिया, जु प्राम शूकरादिका । कुछारछोवि माहिं, कीट होय रात्रि भोजका । तजे निशा अहारकों, विमुक्ति पंथ खोजका ।। १३॥ निशा मह करें अहार, ते हि मूढधी नरा। हैं अनेक दोषकू, सुधर्महीन पामरा। जुकीट माछरादिका, भखें महार माहिते।

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