Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown
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जैन-कियाकोष। मायुकर्म पूरण करि तिनें । शेष मघातियको करि नाश, पायौ मोस पुरी सुखवास ॥३०॥ निशि भोजनतें जे दुख ल्ये, अर त्यागे सुख अनुभये। तिनके फलको वर्णन करी, कथा अणथमी पूरण करी ॥३१
छप्पय-इक चंडाली सुरझि प्रत सेठनि लीयौ। मन बच तन दृढ़ होय त्यागि निशिभोजन कीयौ। ब्रततनों परभाव त्याग तन अंजित जाया । वाही सेठनिके जु उदर उपजी वर काया । गहि जैनधर्म परि शीलबत, पापकर्म सब ही वहा । लहि सुरगलोक नरलोक सुख, लोकसिखरको पथ गहा ॥ ३२ ॥ एक हुतौ जु गाल कर सुदरसन मुनिराया। त्यागौ निशिखान पान जिनधर्म सुहाया । मरि करि हतो सेठ नाम प्रीतकर जाकौ । अदभुत रूपनिधान धर्ममें अति चित ताकौ । भयौ मुनीश्वर सब त्यागिक, केवल लहि शिवपुर गयौ । नहिं रात्रिमुक्ति परित्याग सम, और दूमरौ व्रत लौ ॥३॥ ___सोरठा-निशि भोजन करि जीव, हिंसक वे चहुंगति भ्रमैं । जे त्यागै जु सदीव, निशिभोजन ते शिव लहैं ॥ ३४॥ अर्थ उमरि उपवास, माही बोते तिन तनी । जे जन है जिनदास, निशिमोजन त्यागै सुधी ॥३५॥ दिवस नारिको त्याग, निशिको भोजन त्यागई । निशदिन जिनमत राग, सदा प्रतमूरति बुधा ॥३६॥ एक मासमैं भ्रात, पाख उपास फलें फलामे निशि माहिं न खात, च्यारि अहारा धीवना ॥ ३७॥ निसि भोजन सम दोष, भयौन के है होयगौ। महा पापको कोष, मच मांस माहार सम ॥ ३८॥ त्यानं निशिको खान, तिनें हमारी बंदना । देहो अभय प्रदान, जीवाणनिकों ते नरा ॥ ३६॥ कौलग कहैं सुवीर, निशि भोजनके अवगुणा । जानें श्रीमहावीर, केवलज्ञान महंत सब॥४०॥

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