Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown
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सनत्रय वर्णन।
२९६
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रतनत्रय वर्णन सोरठा-अब सुनि दरसन शान, वरण मोक्षके मूल हैं। रतनत्रय निज ध्यान, तिन बिन मोक्ष नई भया ॥४१॥ सम्यकदर्शन सो हि, मातम रुचि श्रद्धा महा, करनों निश्चय जो हि, अपने शुद्ध स्वभावकों ॥४२ । निजको जानपनो हि, सम्यकशान कहैं जिना। चिरता भाव घनो हि, सो सम्यकचारित्र है। ४३ ॥
चौपाई-प्रथमाहि मलिल जतन करि भाई, सम्यक दरसन चित्त धराई । ताके होत सहस ही होई, सम्यकसान चरन गुन दोई ॥४॥ जीवाजीवादिक नव अर्या, सिनकी श्रद्धा बिन सब व्यर्था । है अद्धान रहित विपरीता, आतमरूप अनूप अजीता ॥ ४५ ॥ सकल वस्तु है उभय स्वरूपा, अस्ति--नास्तिरूपी जु निरूपा ! मनेकांतमय नित्व भनित्या, भगवतने भाषे सहु सत्या ।। ४६॥ तामैं संसै नाहिं जु करनौ, सम्यक दरसन ही दिढ़ परनौ । या भवमैं विभवादि न चाहे परभव भोगनिहून उमाहे ॥४७॥ चक्री केशवादिजे पदई, इन्द्रादिक शुम पवई गिनई। कबहुं पाछै कछुहिन भोगा, ते लिहिये भागबतके लोगा ॥४८॥ जो एकान्तवाद करि दूषित, परमत गुण करि नाहिं जु भूषितः । ताहि न चाहै मन क्च तन कार, ते बरसन धारी उरमैं धरि ।। ४ । क्षुधा सृषा अर उष्ण जु सीवा, इनहि मादिसुखभाव क्तिीता। दुखकारणमैं नाहि गिलानी, सो सम्बदर शन गुणवानी ॥ ५० ॥ लोकवि दहि मूढतमावा, अति अनुसार बने निरदाया । जैनशास्त्र रितु और अ अन्या, शास्त्राभास पिने मपन्या ॥१९॥ जैनसमय बिनु और समया, समयाभास

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