Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown
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२१६
जैन-क्रियाकोष फुनि भयो विडाल सु पापी, जीवनि अति संतापी। सो गयौ नर्कमैं दुष्टा, हिंसा करिकै वो पुष्टा ॥६॥ तहारौं नु भयो वह गृद्धा, फुनि गयौ मई मधवृद्धा । नकसुते नीसरि पापी, हूषौ पसु पापप्रतापी॥७॥ बहुरेंजु गयो शठ कुगती, घोर जु न मति विमती। नीसरिके तिरजंच हवा, बहु पाप करी पशु मूवौ ॥८॥ फुनि गयौ नर्कमें कुमती, नारकतें अजगर अमती। अजगरसे बहुरि नर्का, पायौ अति दुख संपर्का ।।। मर्कजुतै भयौ बघेरा, तहां किये पाप बहुसेरा। बहुरें नारकगति पाई, तहातै गोधा पशु आई ॥१०॥ गोधाते नर्क निवासा, नरक मच्छ विभासा । सो मच्छ नरकमैं जायौ, नारकमै बहु दुख पायौ ॥११॥ नारकर्मी नीसरि सोई, बहुरी द्विजकुलमैं होई । लोमस प्रोहितको पुत्रा, सो धर्मकर्मके शत्रा ॥१२॥ जो महीदत्त है नामा, सातों विसनजुसो कामा। नग्रजुतै लयौ निकासा, मामाके गयौ निरासा ॥१३॥ मामे हू राख्यौ नाहीं, तब काशीके वनमाहीं। मुनिवर भेटे निरमन्था, जे देहि मुकतिको पंथा ॥१४॥ झानी ध्यानी निजरत्ता, भवमोगशरीर विरता। जानें जनमांतर बातें, जिनके मियमै नहिं पातें ॥१॥ तिनकों लखि द्विम शिरनायो, सब पापकर्म विनशायौ। पूछी मनमातर बातां, जा विधि पाई बहु घातां ॥१६॥ सो मुनिने सारी भासीकछु बाववीय महि राखी।

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