Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 213
________________ २१५ जलगालम विधि। वि। पहुँचा सो अन्य अतिवि लिखें ||२|| नो निवाणको होय नीर शाही महै। पधराने बुधिकान परम गुरु यों कहै ।। बोले कपड़े नीर गालाही जे नरा । पाने मोछी योनि की मुनि श्रुतघरा। मलगालण सम किरिया और नाहीं कही। अलगालणमैं निपुण सोहि प्रावक सही॥ चन्थी पडिमा लगे लेइ काचौ जला। मागे काचौ नाहिं प्राशुको निमंझा ॥४४॥ जाण्यू काचौ नीर इकेन्द्री जानिये। मटिका सजीव रहित सो मानिये ॥ प्रामुक मिरच लवड कपूरादिक मिला। बहुरि कसेला आदि वस्तुते जो मिला ॥ ५॥ सों लेनों दोय पहर पहली ही जैनमैं। आगे उस निषजन्न कहौ जिनवेनमें तातौ भात उकालि वारिमु पहर ही, आगे जङ्गम जीवहु उपजै सहज ही ॥६॥ चौपाई-जे नर जिन माझा नहिं आनें, चितमैं आवै सोही ठाने ! भात उकाल अरै महिं पानी, कछु इक मुष्ण करें मनमानी | ताहि जुबरतें अष्टहि पहरा, ते प्रत वर्जित भर अति बहरा मरजादा माफिक नहिं सोई, ऐसें बरतौ भवि मति कोई 11७८॥ औ जन जैनधर्म प्रतिपाला, ता धरि जलकी है इह चाला। काचौ प्राशुक तातौ नीरा, मरजादाम पर बीरा ॥७॥ प्रथमहि श्रावकको माधारा, जलगालण विधि है निरधारा । जे अणछाण्यौ पोर्दै पाणी, ते धीवर बागुर सम जाणी ॥८॥ बिन गाल्यो और नहिं प्याज, अमख न खाने मौन न ख्वाजै । तजि मालस भर सब परमादा, गाले मल चित धरि बहलादा ॥८॥ अलगालण नहिं चित करे जो जल छाननमें चित्त धरै जो। अणछाण्यांकी बन्द हु परती, माले नहीं कदापित करती ॥ ८॥ बून्द परै तौ के प्रायश्चिता,

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