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जन-क्रियाकोष। विधि दान। देवो है अनि भक्ति करि, पात्रदान सो जान ॥रक्षा जो पुनि सम गुन आपतै, ताको दैनों दान । सो समदान है बुधा, करिके बहु सनमान ॥२५॥ दुखी देखि करुणा करै, देवे वविध प्रकार । सो है करुणादान शुभ, भाषे मुनिगणधार ॥२६॥ सकल त्यागि ऋषिव्रत धरै, अथवा अनशन लेइ । सो है सकल प्रदानवर, जाकरि भव उतरेइ ॥२णा दान अनेक प्रकारके, तिनमै मुखिया चार । भोजन औषधि शाख अर, अभेदान अविकार ॥२८॥ तिनको वर्णन प्रथम ही अतिथि विभाग, मंझार । कियो अब पुनरुक्तके, कारण नहिं विस्तार ॥२६॥ ससक्षेत्र वर्णन-जो करवावै जिनभवन, धन खरचे अधिकाय ।
सो सुर नर सुख पायक, लहै धाम जिनराय ।।३०।। जो करवावै विधिथको, जिनप्रतिमा वुधिमन्त । मन्दिरमैं थसुरावई, सो सुख लहै अनन्त ॥३१॥ जब ममान जिनराजकी, प्रतिमा जो पधराय । किंदरीसय वह देहरो, सोहू धन्य कहाय ॥ ३५ ॥ शिखर बध करवावई, जिन चैत्यालय कोय । प्रतिमा उच्च करावई, पावै शिवपुर सोइ ॥ ३३ ॥ जल चदन अक्षत पहुप, अरु नैवेद्य सुदीप । धूप फलनि जिन पूजई, सोह्र जग अवनीप ॥ ३४ ॥ जो देवल करि विधि थकी, कर प्रतिष्ठा धीर । सुर नर पतिके मोह लहि, सो उतनै भवनीर ॥ ३५॥ जो जिन तीरथकी महा, यात्रा कर सुभान । सफल जनम ताही तनों, भार्षे पुरुष प्रधान ॥३६॥