Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown
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जैन-क्रियाकोष प्रतिष्ठा करें, जिन तीरथकी यात्रा करे, शास्त्र लिखावे, पविधि संघकी भक्ति कर ए सप्त क्षेत्र जानि । यहां कोई प्रश्न करे, प्रतिमाजी अचेतन छै, निग्रह अनुग्रह करवा समर्थ नाही, सो प्रतिमाका सेवनथकी स्वर्गमुक्ति फलप्राप्ति कैसी भांति होय १ ताका समाधान । प्रतिमाजी शांत स्वरूपने धाऱ्या छ, ध्यानकी रीतिने दिखावे छै । रढ़ आसन, नासाप्रदृष्टी, नगन, निरामर्ण, निर्विकार जिसौ भगवानको साक्षात स्वरूप छै तिस्यौ प्रतिमाजीने देख्यां यादि आवै छै । परिणाम ऐसे निर्मल होइ छै। अर श्रीप्रतिमाजीने सागोपाग अपना चित्तमै ध्यावै तौ वीतराग भावनै पावै यथा स्त्रीकी मूरति चित्रामकी, पाषाणकी काष्ठादिककी देखि विकारभाव उपजै छै, तथा वीतरागकी प्रतिमाका दर्शनथकी ध्यानथकी निविकार चित्त होइ छै। पर आन देवकी मूरति रागी द्वषो छ । उम्मादने धारै छै । सो वाका दरशन ध्यान करि राग दोष उन्माद बढ़े छै। तीसौं आराधना जोग्य,दरसन जोग्य जिनप्रतिमा ही छै। जीवांने मुक्ति मुक्तिदाता छै । यथा कलपवृक्ष, चिन्तामणि औषधि, मंत्रादिक सर्व अचेतन छ, सणि फलदाता छै तथा भगवतकी प्रतिमा अचेतन है, परन्तु फलदाता छ । ज्ञानी तो एक शातभावका अभिलाषी है। सो शान्तभावने जिनप्रतिमा मूर्तवन्त दिखाजै छ। तीसू ग्यान्नांने अर जगतका प्राणी संसारीक भोग चावै छ। सो जिनप्रतिमाका पूजनथकी सर्व प्राप्ति होय छै। ऐसो जानि, हित मानि, संसै भानि जिनप्रतिमाकी सेवा जोग्य छ।
कवित्त-श्रीजिनदेवतनी अरचा भर साधु दिगम्बरकी अतिसेव । श्रीजिनसत्र सुनै गुरु सन्मुख, ल्यागे कुगुरु कुधर्म कुदेव ॥८॥

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