Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ चाड मनवोगमई महा, द्वादशांग मनिकार। सो जिनवाणी है भया, करे अगतथी पार ३णा ताके पुस्तक बोधकर, लिख लिखावे शुद्ध । धन सरचे या वस्तुमैं, सो होवे प्रतिबुद्ध men प्रन्थनिकू मूड़े करै, करवावै धरि चित । भले भले वस्त्रानि विर्षे, राखे महा पवित्र ॥३॥ जीरण ग्रन्थनिके महा, जतन कर बुधिवान। ज्ञान दान देवे सदा, सो पावै निरवान ॥४०॥ जीरण जिनमंदिरतणी, मरमत जो मसिवान । करवावै अति भक्तिसों, सो सुख लहै निदान ।।४।। शिखर चढ़ावै देदुरा, धन खरचै या भाति । कलश परै जिनमन्दिरां, पावै पूरण शाति ॥४२॥ छत्र चमर घण्टादिका, बहु उपकरणां कोय । पधरावै चैत्यालये, पावै शिवपुर मोय ॥४३॥ टीप करावे द्रव्य दे धुबलावै जिनगेह। धुजा चढ़ाव देव लों पाधै घाम विदेह ॥४४॥ जो जिनमन्दिर कारनें, धरती देय सु वीर। . सो पावै अष्टम परा, मोक्ष काम गम्भीर | चाविधि संघनिकी भया, मनक्व सनकरि भक्ति। करे हरै पीरा सबै सो पावै निज शक्ति ४६॥ सस क्षेत्र ये धर्मके, कहे जिनागम रूप । इनमें धन सरचे भा, पावै विच अनूप रचा अब बानिका-प्रतिमा करावे, देवल करावे, पूजा सम

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225