Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown
View full book text
________________
~WW WA
1
3
१६७ धर्म की विचलेनिक, प्रतिबोषै मतिवान |२८| थार्षे धर्म मझार जो, करें धर्मकी पक्ष | आप डिगे नहि धर्मतें, भावे भाव भक्ष ||८|| थिरतागुण सम्यक्तकौ, प्रगट बात है यह । चित्त अथिरता रूप जो, तौ मिध्यात गिनेह ||३०|| सुनो सातम् अंग अब, जिन मारगसो नेह | जिनधर्मीकू देखि करि, बरसे व्यानंद मेह ॥ ६१॥ तुरत जात बछरानि परि त करें ज्यू गाय । त्युं यह साधर्मी उपरि हेत करें अधिकाय |. ६२|| जे ज्ञानी घरमातमा, मुनि श्रावक व्रतवंत । आर्या और सुश्राविका, चडविधि संघ महंत ||३|| तथा अन्नती समकिती, जिनधर्मी अग माहि । तिनसों राखे प्रीति जो, यामै संसे नाहि ||४|| तन मन धन जिनधर्म परि, जो नर वारे डारि । सो वातसल्य जु मङ्ग है, भाख्यौ सूत्र विचारि ||१५|| अष्टम मङ्ग प्रभावना, कझौ सुनों घरि कान । जा विधि सिद्धान्तनि विषै, भाष्यौ श्री भगवान |१| भांति भाति करि भासई, जिनमारगकों जो हि । करें प्रतिष्ठा जैनकी, अङ्ग आठमो होहि ॥६७ जिनमंदिर जिनतीरथा, जिन प्रतिमा जिनधर्म | जिनधर्मी जिनसूत्रकी, करें सेव बिन भर्म ॥ ६ ॥ जो अति श्रद्धा करि करें, जिनशासनकी सेव । बोलै प्रियवाणी महा, ताहि प्रसंस देव ॥६६॥ जो दसलक्षण धर्मकी, महिमा करें सुजान । इन्द्रिनके सुखकों गिने, नरक निगोद निसान ॥ १०० ॥ कथनी कर न पारकी, फुनि फुनि घ्यावे तस्व । भावे आतमभाव जो, त्यागे सर्व ममत्र ॥ ० ॥ कहे अङ्ग ये प्रथम हो, मूल गुणनिके माहिं । अब हु पड़िमामैं कहै, इन सम और जु नाहि ॥ २ ॥ बार और बुति ओग ये, सम्यकदरसन मङ्ग । इनको धारै सो सुधी, करें कर्मकौ भङ्ग ॥ ३ ॥ अष्ट अङ्गको धारियों, अष्ट मदनिको त्याग ।
सम्यक वणन |
VA

Page Navigation
1 ... 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225