Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ १६६ जन-क्रियाकोष। जे दश लक्खण धर्म घरैया, साधु शातरस हीना। तिनको लखि रोगादिक जुक्ता, सेव करें परवीना॥ सूग न आने मनमै क्यू हीं, हरै मुनिनकी पीरा । सो सम्यकदृष्टी जिनधर्मा, तिरै तुरत भवनीरा ॥ ४ ॥ चौथो अंग अमूढ स्वभावा, नहीं मूढता जाके। जीवघातमें धर्म न जाने, संसै मोह न ताके॥ अति अवगाढ़ गाढ़ परतीती, कुगुरु कुदेव न पूजे । जिन सासनको शरणो ले करि, जाय न मारग दूजे ।। ८०॥ जानें जीवदयामैं धर्मा, दया जैन ही माहीं। आन धर्ममैं करुणा नाही, परतख जीव हताई ।। जो शठ लज्जा लोभ तथा भै, करिके हिंसा माहीं। मानै धर्म सो हि मिथ्याती, जामै समकित नाहीं ।। ८१॥ पचम अङ्ग नाम उपग्रहुन, ताकौ सुनहु विवेका । पर जीवनिके आखिन देखें ढाके दोष अनेका ।। आप जु दोष कर नहिं ज्ञानी सुकृत रूप सदा ही। अपने सुकृत नाहिं प्रकाशै, टरै न एक मदा ही ।। ८२ ॥ दोहा-ढाकै अपने शुभ गुणा ढाकै परक दोष । गावे गुण परजीवके, रहै सदा निरदोष ॥८३॥ जो कदाचि दूषण लगै, मन वच काय करेय । तौ गुरु पै परकाशिक, ताकौ दंड झु लेय ॥ ८४ ॥ जप सप प्रत दानादि कर, दूषण सर्व हरेय । करै जु निंदा आपकी, परनिंदा न करेय ॥८५॥ जे परगासैं पारके, ओगुन तेहि अयान । जे परगास आपके, औगुण तेहि सयान ॥८६॥ जे गावै गुन गुरुनिके, ते समदृष्टी आनि ॥८॥ छट्टो अंग कहों अवै, थिरकरणा गुणवान ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225