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जन-क्रियाकोष। जे दश लक्खण धर्म घरैया, साधु शातरस हीना। तिनको लखि रोगादिक जुक्ता, सेव करें परवीना॥ सूग न आने मनमै क्यू हीं, हरै मुनिनकी पीरा । सो सम्यकदृष्टी जिनधर्मा, तिरै तुरत भवनीरा ॥ ४ ॥ चौथो अंग अमूढ स्वभावा, नहीं मूढता जाके। जीवघातमें धर्म न जाने, संसै मोह न ताके॥ अति अवगाढ़ गाढ़ परतीती, कुगुरु कुदेव न पूजे । जिन सासनको शरणो ले करि, जाय न मारग दूजे ।। ८०॥ जानें जीवदयामैं धर्मा, दया जैन ही माहीं। आन धर्ममैं करुणा नाही, परतख जीव हताई ।। जो शठ लज्जा लोभ तथा भै, करिके हिंसा माहीं। मानै धर्म सो हि मिथ्याती, जामै समकित नाहीं ।। ८१॥ पचम अङ्ग नाम उपग्रहुन, ताकौ सुनहु विवेका । पर जीवनिके आखिन देखें ढाके दोष अनेका ।। आप जु दोष कर नहिं ज्ञानी सुकृत रूप सदा ही।
अपने सुकृत नाहिं प्रकाशै, टरै न एक मदा ही ।। ८२ ॥ दोहा-ढाकै अपने शुभ गुणा ढाकै परक दोष । गावे गुण परजीवके, रहै सदा निरदोष ॥८३॥ जो कदाचि दूषण लगै, मन वच काय करेय । तौ गुरु पै परकाशिक, ताकौ दंड झु लेय ॥ ८४ ॥ जप सप प्रत दानादि कर, दूषण सर्व हरेय । करै जु निंदा आपकी, परनिंदा न करेय ॥८५॥ जे परगासैं पारके, ओगुन तेहि अयान । जे परगास आपके, औगुण तेहि सयान ॥८६॥ जे गावै गुन गुरुनिके, ते समदृष्टी आनि ॥८॥ छट्टो अंग कहों अवै, थिरकरणा गुणवान ।