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ग्यारा वर्णन - मन वच काय शुद्ध कार सन्त, मग या धार न महन्त ।
जीव घाततै कांप्यौ मोहि, सो अष्टम पडिमावर होहि ॥६॥ असि मसिषि वाणिज इत्यादि, तजे, जगत कारज गनि वादि। जाय पराये जीमै सोह, गृह आरम्भ कळू नहि होह ॥६॥ कहि करवावे नाही वीर, सहज मिलें तो जीमैं धीर । ले जावै कुल किरियावन्त, ताके भोजन ले बुधिवन्त ॥६८॥ जगत काज खजि मातम काज, करै सदा ध्याये जिनराज । क्या नहीं मारम्भ मंझार, करि आरम्म भ्रमै संसार ॥६६॥ वाते सगै गृहस्थारम्भ, जीवदयाकौ रोप्यो थम्म । करि कुटुम्बको त्याग सुजान, हिंसारम्भ सजै मतिवान ॥७॥ दया समान न जगमैं कोई दया हेत त्यानें जग सोड़। अब नवमी प्रतिमा को रूप, धारी भवि तजि जगत विरूप नवमी पडिमा धारक धीर, तजे परिणहकों वर वीर। अन्तरङ्गके त्यागै संग, रागादिकको नाहिं प्रसङ्ग या बाहिरके परिमह घर आदि स्थासर्व धातु रतनादि । वस्त्र मात्र राखे बुधिवन्त, कनकादिक भाटै न महन्त ॥३॥ वस्त्र हु बहु मोले नहिं गहै, अलप वस्त्र हे भानन्द लहै। परिग्रहको जानै दुखरूप, इह परिग्रह है पापस्वरूप ॥७॥ जहां परिग्रह लोम वहां हि, या करि दया सत्य विनशाहि । हिंसारम्म उपांवे एह, या सम और न शत्रु गिनेह ॥५॥ तजै परिगृह सोहि सुजान, तृष्णा त्याग को बुधिनान । आकी चाह गई सो सुखी, चाह करें ते वीले दुखी HI बाहिन ग्रन्थ रहित जग माहि, दारिद्री मानव शक नाहि । .