Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 181
________________ बारहनत वणन। AMRALA लघुक्षर काल, चौदम ठाणे थिति करें। रहित जगत जंभाल, अगत शिखर राजे सदा । बहुरि न आवै सोय, लोकशिखामणि जगतते । त्रिमुवनको प्रमु होय, निराकार निर्मल महा ॥ १५ ॥ सबकी करनी सोह, जाने अंतरगत प्रभू । सर्व व्यापको होइ, साखीभून अव्यापको ॥१६॥ध्यान समान न कोई, ध्यान ज्ञानको मित्र है। सोनिज ध्यानी होइ, ताकों मेरी बदना ॥१७॥ धर्ममूल ए दोय, ध्यान प्रशंशा योग्य हैं । आरति रुद्र न होय, सो उपाय करि जीव तू ॥१८॥ धर्म अगनिकौ दीप, शुकल रतनकौ दीप है, निजगुण आप समीप तिनको ध्यावौ लोक तजि ॥ १६ ॥ ध्यान तनू विस्तार, कहि न सके गणधर मुनी । कैसे पार्वै पार, हमसे अलपमती भया ॥ २० ॥ सप जप ध्यान निमित, ध्यान समान न दूसरी। ध्यान धरौ निज चित्त, जाकर भवसागर तिरौ ।। २१॥ नपकू हमरी ढोक, जामैं ध्यान ज पाइये। मेटै जगको शोक करै कर्मकी निर्जरा ॥ २२ ॥ अनशन आदि पवित्र, ध्यान लगै तप गाइया। बारा भेद विचित्र, सुनों अबै समभाव जो ॥ २३ ॥ (इति द्वादश तप निरूपणम्।) मम भाव वर्णन (छप्पय छंद) . राग दोष अर मोह, एहि रोके समभावै। जिनकरि अगके जीव, नाहिं शिवथानक पावें। तेरा प्रकृति अ राग, दोषकी बारा जानों। मोहतनी है सीन, मट्ठाईस बखानौं। .

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