Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 179
________________ n arenamedh लेश्या सुबक माव अति शुद्धा, मन क्व काय सबै निकाला। यामैं एक और है मेदा, सो तुम बारहु टारहु सेनाneen पसमश्रेणी कपकजु श्रीगी, सिनमैं क्षायक मुलिनिसनी। पहलो शुक्ल दोज पार, दूजी अपकविना न निहारे का उपसम बार बारम ठाणा, परस्परै उत्तरै गुणाणा। जो कदाधि भवहूर्ते आई, तौ महमिन्द्रलोकको जाई Ncell नर करि धारै फिर धर्मा, बढ़ क्षपकोणी नु अपा। क्षपक श्रेणिधर धीर मुनिन्द्रा, होवे केवलरूपजिनिन्दा बारम ठाणों पूजौ सुकला, प्रकटै जा सम और न विमला। दुवै मैं झपकोणि अधिकाई, कहीं जाथ नहिंक्षपक बढ़ाई अष्टम ठाणे प्रगटे श्रेणी, सप्तमलों श्रेणी नहिं लेणी। मपक श्रेणिघर सुकल निवासा, प्रकृति छतीस नवें गुणनामा दशमें सक्षम लोभ छिपावे, दशमाथी बारमकों जा। ग्वारमको पैंडो नहिं लेदै, दूजो सुकलध्यान सुख बे I साधकताकी हर बताई , बारमठाण महा सुखदाई। जहां षोड़सा प्रकृति खिपावे , शुद्ध एकतामें लव ला l सोरठा-मासौ मोह पिशाच, पहले पायेसे श्रीमुनि । राजी जगतको नाच, पायो ध्यायौ दूसरौ ॥४॥ है एकत्ववितर्क, अधीचार दूजी महा । कोटि अनंता अर्क, जाको सौ तेज न लहै JE५|| झानावरणीकर्म, दर्शनावरणी हू हते। रह्यौ नाहिं कछु मर्म, अन्तराय अन्त जु भयो । ६६ ।। निरविकल्प रस माहि, तीन भयौ मुनिराज सो । जहाँ भेद कछु नाहि निजगुण पर्ययमावते ॥ER

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