Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 184
________________ जैन-क्रियाकोष। दोहा-अनंतानुबंधी प्रथम, द्वितीय अप्रत्याख्यान । तीजी प्रत्याख्यान है, चउथी है संजु लान ॥३८॥ कही चौकरी चार ए, चारो गतिकी मूल । च्यारितनी सोला भई भेद मोक्ष प्रतिकूल ॥३६॥ हास्य अरति रति शोक भय, दुरगंधा दुखदाय । नो कषाय ए नव कहो, पंचवीस समुदाय ॥४०॥ राग दोषकी प्रकृत ए कहौ पचीस प्रमान । तीन मिथ्यात ममेन ए, अट्ठाईस वखान ॥४१॥ जावं जबै सब ही भया, तब पूरण समभाव। यथाख्यातचात्रिह, क्षीणकषाय प्रभाव ॥४२॥ मुनिके जाते अलप है, छटे सातमे ठाण । पन्द्रा प्रकृति अभावनें, ता माफिक समजाण ||४॥ प्रावकके यात अलप, पंचम ठाणों जाण । ग्यारा प्रकृति गया थकीं, ता माफिक परवाण ॥४४॥ श्रावकके अणुवृत्त है, इह जानो निरधार। मुनिके पञ्चमहानता, समिति गुपति अविकार ॥४५॥ श्रावकके चौथे अलप, चौथौ अत्रत ठाण । सहा सात प्रकृती गई, ता माफिक ही जाण ॥४६॥ गुणठाणा समभावके, ह्र ग्यारा तहकीक । चौथे सूले चौदमा, तक नहिं बात अलीक ॥४॥ चौथे अधनि जु जानिये, मध्य पंचमे ठाण । छठासू दसमा लगै, बढ़तो बढतो जाण ॥४८॥ बारम तेरम चौदवें, है पूरण समभाव। जिन सासनको सार इह, भवसागरकी नाव ॥४॥ छप्पय-छट्टमसोले ... ...जुगल मुनीके आणा। तिनको सुनहुं विचार, जैनशासन परवाणा ॥ छट्टम सप्तम ठाण, प्रकृति पंद्रा जब त्यागी। तीन मिथ्यात विख्यात, चौकरी इक तीन ममागी। तब उपजै समभावई, आवकके अधिकौ महा

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