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जैन-क्रियाको
एक माहके मेद, दो दर्शन चारित्र ए दर्शन मोह मिष्यात भव, जहा न सम्यक सोहए ॥ २४ ॥ राग द्वेष ए दोय, आनि चारित्र जु मोहा । इनकरि तप नहीं उत्त, ए पापी पर द्रोहा ।। इनकी प्रकृति पचीस, तेहि तजि बातमरामा । छोडौ तीन मिथ्यात, यही दोषनिके धामा । स्वपर विवेक विचार बिना, धर्म अधर्म न जो लखे। सो मिथ्यात अनादि प्रथम, ताहि त्यागि निजरस चले २५ दूजो मिश्र मिथ्यात, होय तीजे गुण ठाणे । जहां न एक स्वभाव, शुद्ध मातम नहिं आणे ॥ सत्य सत्य प्रतीति होव दुविधामय भाई । वाहि त्यागि गुणखानि, शुद्ध निजमाव लखावे ॥ सीओ समय प्रकृमि मिथ्यात, सककितमै उदवेग कर ( १)। भलो दोयत तीसरौ; तौपन चंचलभाव घर ॥ २६ ॥ दोहा-कहे तीन मिथ्यात ए, दर्शन मोह विकार । अब चारित्र जु मोहको, भेद सुनौ निरधार ॥२१॥ कही कपाय नु पोड़सी, नो-कषाय नव भेलि । ए पचीसों आनिये, राग दोषकी केलि ॥२८॥ चउ माया चउ लोम अर, हासि रती त्रय वेद । ए तेरा हैं रागकी, देहि प्रकृति अति खेद ॥२६॥ च्यारि क्रोध पर मान चर, अरनि शोक भय जानि । दुरगंधा ये द्वादशा, प्रकृति दोषकी मानि ॥३०॥ लगी अनादि जु कालकी, भरमा जु अनन्त । विनसें भम्बनिके मया, है न जमविके अन्त ॥३क्षारोको सम्यकरष्टिकों, रोसकल विभाव। ढोकै मिथ्याष्टिकों, नहिं मामें