________________
सम्यक वर्णन |
१६३
1
भिन्न भिन्न हैं धर्म ॥ ४१ ॥ यथा सर्पकी कंचुकी, यथा खड़गको म्यान । तथा खै बुध देहकों, पायौ व्यावमज्ञान ॥४२॥ दोष समस्त वितीत जो, वीतराग भगवान । ता बिन दूजौ देव नहिं, इह बार सरघास ||४३ || सर्व जीवकी जो दया, ताहि सरदहै धर्म । गुरुमाने सिरमन्थकों, जाके रंच न भर्म ॥ ४४ ॥ जपै देव अरहतको दास भाव धरि धीर । रागी दोषी देवकी, सेब तजे वरवीर ॥ ४५ ॥ रागी दोषी देवको, जो मानै मतिहीन । धर्म गिर्ने हिंसा बिषे, सो मिथ्या मतिहीन ॥ ४६ ॥ परिगृह धारककों गुरु, जो आर्ने जग माहिं । सो मिध्यादृष्टी महा यामैं संसै नाहिं ॥ ४७ ॥ कुगुरुकुदेव कुधर्मकों, जो ध्यावै हिय अंध । सो पार्ने दुरगति दुखी, करे पापको बंध ॥ ४८ ॥ सम्यकदृष्टी चितवे या संसार मंझार । सुखको लेश न पाइये, दीखे दुःख अपार ॥ ४६ ॥ लक्ष्मीदाता और नहि, जीवनिकों जगमाहिं । लक्ष्मी दासी धर्मकी, पापथकी विनसाहि ॥ ५० ॥ जैसौ उदय जु आवही पूरब बांध्यौ कर्म तैसौ भुगतें जीव सव, यामैं होय न मर्म ॥५१ पुण्य भलाई कार है, पाप बुराई कार । सुखदुखदाता होय यह, और न कोई विचार || ५२ । निमित्तमात्र पर जीव हैं, इह निचे निरधार। अपने -कीये आप ही, फल भुगते संसार ॥ ५३ । पुन्यथकी सुर नर हुवै, पापथकी भरमाय । तिर नारक दुरगति विबैं, भव भव अति दुख पाय । ५४ । पाष समान न शत्रु है, धम समान न मित्र । पाप महा अपवित्र है, पुण्य कछुक पवित्र । ५५ । पुण्यपापत रहित जो, केवल आतम भाव । सो उपाइ निरवाणको, जामैं नहीं विभाव । ५६ । झूठी माया जगतकी, झूठौ सब संसार । सत्य जिनेसुर धर्म है, जा करि है भवपार ॥ ५७ ॥ ध्यंतर देवादिनिकों ने शठ 灣