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बारह व्रत वर्णन। धर्म कपन करिगौ सदा, कहैं धर्मघर धीर ॥ १ ॥ निसप्रेमी भनमावतें, जो स्वाध्याय करेय । सो पावै निजज्ञानकों, भवसागर उतरेय ॥७२॥ जो सेवैं जिनसूत्रकों, जग अभिलाष घरेय । गर्व धरै विद्यातनो, सो चउगति भरमेय ।। ७३ ॥ हम पंडित बहुश्रुत महा, जानें सकल जु अर्थ । हमहिं न सेवै मूढधी, देखौ बडौ अनर्थ ।। ७४॥ इहै वासना जो धर, सो नहिं पंडित कोइ । आतम भावे जो रमैं, सो बुध पंडित होइ ॥ ७ ॥ मान बढ़ाइ कारने, जे श्रुति से अन्ध । ते नहिं पावें तत्त्वकों, करै कर्मको बन्ध ॥ ७६ ॥ जैनसूत्र मद मान हर, ताकरि गर्वित होय । ताहि उपाय न दूसरौ, भ्रमै जगतमें सोय । ७७ ॥ अमृत विषरूपी भयौ, जाकौ और इलाज । कहो, कहा जु बताइये, भार्षे पंडितराज ॥ ८ ॥ जो प्रतिकूल बिमूढधी, साधर्मिनतें होइ । पढ़िवौ गुनिवौ तासके, हालाहल सम जोइ ॥ ६ ॥ राग द्वेष करि परिणम्यू, करै असूत्र अभ्यास । सो पावै नहिं धर्मकों, करै न कर्म विनास ॥ ८ ॥ युद्ध कथा कामादिका, कुकथा चावै मूढ़। लोक-रिझावन कारणों, सो पद लहै न गूढ ॥ ८१ ॥ जो आनै निजरूपकू, अशुचि देहत भिन्न । सो निकसै भक्कूपते, भटकै भाव अभिन्न ॥२॥