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चार वर्णन
उपकरणादिकमै ममरा, ते महि ज्ञान सुधारा पायें। जग विवहार नै नहिं जलों, नहिं कायोत्सर्ग व दौलों ६४ नाम त्यागको है उर्गा, कंपै नहिं जो है उपसर्गा | तब कायोतसर्ग तप पावे, निज चेतनसों चित लगावै ॥६५॥ एक दिवस है दिवसा भाई, पाख मास कमौ हि रहाई ।
मासी छहमासी वर्षा, रहें जु ऊभौ चितमैं इरवा ॥ ६६ ॥ यहि निजज्ञान भयौ अति पुष्टा, जाहि न धेरै विकल्प दुष्टा सो कायोत्सर्ग तपधारी, पावे शिवपुर आनन्दकारी ॥ १७ ॥ मुनिके यह तप पूरण होई, श्रावकके किंचित तप जोई। आवक हू नहिं देहसनेही, जानों मातम तत्त्व विदेशी ॥६८॥ मरणवनों में तिनके नाहीं, ते कायोत्सर्ग सपमाहीं । अब सुनि बारम तप है ध्याना, जो परसाद ल्दै निजज्ञाना|| अन्तर एक महूरत काळा, सो एकाग्रचित व पाला । ताकौ नाम ध्यान है भाई, व्यारि भेद भायें जिनराई ॥१००॥ द्वै प्रशस्त है निंद्य बखानें, श्रुत अनुसार मुनिनने जानें । आरति रौद्र अशुभ ए दोऊ, धर्म सुकळ अति उत्तम होऊ |१| भारति तीव्र कषायें होई, महा तीव्रतें रौद्र ज सोई । मन्द कषायें धर्म सुध्याना, आहि न पावे जीव अशाना ॥२॥ धर्मध्यान सुफळ सु ध्याना, सुकलध्यान केवलज्ञाना। रहित कषाय सुकल है सूघा, जा सम और न ध्यान प्रदूषा ३ वारि ध्यान प भाषै भाई, तिनके सोला भेद कहाई । ते तुम सुनहु विच परि मित्रा, त्यागौ भारति रौद्र विचित्रा ४ भारवि च भेद जु बोटे, पशुगतिदायक मौगुण मोटे ।