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जैन-क्रियाकोष।
करनों पंचम तप भया, अब छट्टो तप घार । कायकलेस जु नाम है कह्यौ सूत्र अनुसार ।। १४ ।। अति उपसर्ग उदै भयौ, ताकरि मन न डिगाय । क्षमावान शातिक महा, मेर समान रहाय ॥ १५ ॥ देव मनुज तिरजच कृत, अथवा स्वते स्वभाव । उपजौ जो उपसर्ग है, तामै निर्मल भाव ॥ १६ ॥ खेद न आने चित्तमैं, कायकलेस सहेय । सौ कलेस नहिं पावई, ज्ञान शरीर लहेय ॥ १७ ॥ गिरि सिर ग्रीषममै रहै, शीतकाल जलतीर । बर्षाऋतु तरुतल बसइ, सो पानै अशरीर ॥ १८ ॥ आतापन जोग ज धरै, कष्ट सहै जु अशेश । अतिउपवास कर सुधी, सो तप कायकलेश ॥ १६ ॥ कायलेसे सहु मिटे, तन मनके जू कलेश । महापाप कर्म जु कट, गुण उपजेंहि अशेश ।। २० ।। मुनि श्रावक दोऊनिको करिवौ कायकलेश । संकलेसता भाव तजि, इह आज्ञा जगतेश ॥ २१ ॥ वनवासीके अति सपा, घरवासीके 'अल्प। अपनी शक्ति प्रमाण तप, करिवौ त्याग विकल्प ॥ २२ ॥ ए षट बाहिज तप कहै, अब अभ्यन्तर धारि । इह भाई श्रुतकेवली, जिनबाणी अनुसार ॥ २३ ॥ दोष न करई आप जो, करवानै न कदापि । दोषतनो अनुमोदना, करै नहीं बुध क्वापि ॥ २४ ॥ मन वच तन करि गुणमई, मिरदोषो निरुपाधि ।