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बारह प्रत वर्णन! . ५५ हे प्रायोपगमन सब माहें, उत्तमसों उत्तम सक नाई ॥१०॥ ताको अर्थ सुनौ मनलाये, जाकर अपनों तत्व लखाये। प्रायः कहिये मित्र सर्वथा, उप कहिये स्वसमीप निळया ११ गमन जु कहिये आप्रत होवो, रात दिवस कबहूनहि सोवो सो प्रायोपगमन संन्यासा, सर्व गुणाकरि धर्म अभ्यासा १२ निजको बारंबार चितारे, क्षण क्षण चेतन तत्व निहारे। जग संतति तजि होइ इकाकी, कीरति गावे श्रीगुरु ताकी। सगै आहार विहार समस्ता, भने बिचार समस्त प्रशस्ता। इह भव परभवकी अभिलाषा,जिन करि होइ निरोह ममासा या जड तनकी सेवा मापुन, करै न करावे विधिसों थापुन अति वैराग्य परायण सोई, तजे अनातम भाव सबोई १५ गहन बनें भू मज्जा धारी, निसाह जगतजोगधी भारी। चित्त दयाल सहनशीलो जो, सहै परीषह नहिं ढीलो जो १६ जो उपसर्ग थकी नहि कंप, जाको कायरता नहिं च। भागो लोक प्रपंचथकी ओ, परपरणति जाते दिसिकी जो।। या संन्यास थकी जो प्राणा, त्यागै सो नहिं मुवौ सुजाणा। सुर-शिवदायक है यह व्रता,यामें बुधजन कर प्रवृत्ता ॥१८॥ पञ्च अतीचारी जो त्यागै, तब संन्यास-पथकों लागे । सो तजि पाचूं ही अतिचारा, ये तो सल्लेखण व्रत धारा १६ जीवित अभिलाषा अघ पहिला,ताको सो गिनि लो यह गहिया देखि प्रतिष्ठा जीयौ थाहै, सो सल्लेखण नहिं अवगाहै २० दूजौ मरण तनी अभिलाषा, जो धारै निज रस नहि चाखा रोग कष्ट करि पीब्यो अति गति, मरिवौ चाहै सोशठमति
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