________________
जैन-क्रियाकोष।
महा ऊपजै जिनवरा, तीन भुवनके दीप ।। नहिं जिन प्रतिमा सारिखी, कारण वर वैराग । नहीं आन मूरति जिसी, कारण दोष रु राग ॥ नहिं अनादि प्रतिमा समा सुन्दर रूप अपार । नाहिं अकर्तम सारिखे, चैत्यालक विस्तार ।। ८० ॥ क्षेत्र न आरिज सारिखे, सिद्ध क्षेत्र है सोइ । भरतैरावत दस सबै, नहिं विदेहसे कोइ ॥ गिरि नहिं सुरगिरि मारिखे, तरु सुरु तरुसे माहि । नदी सुरनदीसी नहीं, सर्व नदोके मांहि ।। शिला न पाडुकशिलसमा, जा परि न्हावै शीश। सिद्ध सिलासी पाडु नहीं, म त्रिभुवनके शीश ॥ उदधि न क्षीरोदधि समा, द्रह पदमादि जिसे न । मणि नहि चिन्तामणि ममा, कामधेनुमी धेनु ॥ निधि नहीं नवनिधि सारिखी, सो जिननिधिसी नांहि । नहीं समुद्र गुण सिन्धुसो, है जिन निधि आ माहि ।। नन्दनादिसे बन नहीं, ते निज बनमे नाहि। निज बनमे क्रीडा करें ते आनन्द लहाहिं।। केवल परिणति सारिखी, नदी कलोलनि कोइ । निजगंगा सोई गनों ता सम और न होइ ।। देव न आतम देवसो, गुण आतमसो नाहिं । धर्म न आतम धर्मसो, गुन अनंतजा माहिं ।। बाजा दु दुभि सारिखा, नहीं अगतमें और । राजा जिनवरसो नहीं, तीन भुवन सिरमौर ।।