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जैन-क्रियाकोष |
तौ पन संसारी जना, नाहिं कदे सुखवान ॥ २२ ॥ चहुगतिमे नहिं रम्यता, रम्य आतमाराम । जाके अनुभव महा, है पचमगति धाम ॥ २३ ॥ इह विचार जाके भयौ, देहहु अपनी नाहिं । सो कैसे परपश्च करि, बूडै परिग्रह माहिं ॥ २४ ॥ सवैया तेईमा
हयगय पायक आदि परिग्रह, पुण्य उद गृह होय विभौ अति । पाय विभौ फुनि मोहित होत, सरूप विमारि करें परसों रति ।। नारहि पोषण कारण काज, रच्यौ बहु आरंम्भ बाधक दुर्गति । ज्ञान है हम कबहू मन, राम व फुनि देहहु द्यो मति ।। २५ ।। नाहिं संतोष समान जुआन है, श्रीभगवान प्रधान सुधर्मा । है सुखरूप अनूप इहै गुण, कारण ज्ञान हरै सब कर्मा || पापनिको यह बाप जु लोभ, करें अतिक्षोभ घरै अति मर्मा । धारि संतोष लहै गुणकोष, तजै सब दोष लहै विजमर्मा ।। २६ ।। बँक सबै जग राव रिषोसुर, जो हि धरै शुभ शील संतोषा । सो हि लदै निज आतम भेद, करें अघ छेद हरें दुख दोषा ।। श्रावक धन्य तजै सहु अन्य, हुए जु अनन्य गर्दै गुण कोषा ॥ काम न मोह न लोभ न लेश, नहिं मान दहै रति रोषा ॥ २७ ॥ लोभ समान न औगुण आन, नहीं चुगली सम पाप अरूपा । सत्य हि बैन कहै मूखतें सुभ, तो सम व्रत न तप्प निरूपा ॥ पावन चित्त समान न तीरथ, आतम तुल्य न देव अनूपा । सज्जनता सम और कहा गुण, भूषण और न कीरति रूपा ॥ २८ ॥ ब्रा सुग्यान समान कहा धन, औजस तुल्य न मृत्यु कहाई ।
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