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जैन-क्रियाकोष |
परिग्रहको परमाण करि, जयकुमार गुणधार । सुर-नर कर पूजित भयौ, रह्यौ भवोदधि पार ॥ ३३ ॥ परिग्रहकी तृष्णा करे, लबधदत्त गुणवीत । गयो दुरंगती दुख लहे त्यो समश्रु नवनीत ॥ ४० ॥ करें संख्या सगकी, हरें देहतें नेह ।
व्यति न भ्रमावे नर पसू, गिनै आपसम तेह ॥ ४१ ॥ बोझ बहुत नहिं लादिवो करनों बहुत न लोभ ।
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अति संग्रह तजिवौ सदा, करनों बहुत न क्षोभ ॥ ४२॥ अति विस्मय नहिं धारिवौ, रहनो नि सन्देह | झूठी माया जगतकी, अचिरज नाहिं गनेह ॥ ४३ ॥ परिग्रह संख्यावरतके, अतीचार हैं पंच । तिनकू त्यागे जे बती तिनके पाप न च ॥ ४४ ॥ क्षेत्र वस्तु संख्या करी, ताकों को उलंघ । अचार है प्रथम यह, भाषै चउविधि संघ ॥ ४५ ॥ काहु प्रकारे भूलि करि, जोहि उलंधै नेम । अतीचार ताकों प्रौ, भाषै पण्डित एम ॥ ४६ ॥ द्विपद चतुष्पद संगको, करि प्रमाण जो वीर । अभिलाषा अधिक धरै, सो न लहै भवतीर ॥ ४७ ॥ व्यतीचार दूजो इहै, सुति तीजो अघरास । धन धान्यादिक वस्तुको करि प्रमाण गुरुपास ॥ ४८ ॥ चित संकोच सकै नहीं, मन दौरावै मूढ ।
सो न हे व्रत शुद्धता, होय न ध्यानारूढ ॥ ४६ ॥ हम राख्यौ परिग्रह अलप, सरै न एते माहि ।