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बारह प्रत वर्णन। मुनि होनेको एहि अभ्यासा, इन सम और न कोइ अभ्यासा । मुक्ति मुक्ति दायक ये प्रत्सा, धन्य धन्य जे करहिं प्रवृत्ता ॥२॥ अब सुनि व्रत ग्यारमो मित्रा, तीजो शिक्षाबत्त पवित्रा। जे भोगोपभोग हैं जगके ते सहु बटमारे जिनमगके ।। २८ । त्याग जाग हैं सकल विनासी, जो शठ इनको होय विलासी। सो रुलिहै भवसागर माही, यामे कछू संदेहा नाहीं ॥ २६ ॥ एक अनंतो नित्य निजातम, रहित भोग उपभोग महातम । भोजन तांबूलादिक भोगा, वनिता बल आदि उपभोगा ।। ३० ॥ एकबार भोगनमें यावे, ते सहु भोगा नाम कहा। बार बार जे भोगो जाई, ते उपभोगा जानहु भाई ॥३१॥ भोगुपभोग तनों यह अर्था, इन सम और न कोइ अनर्था । भोगुपभोग तनों परमाणा, सोतीजो शिक्षाबत जाणा ।। ३२॥ छत्ता भोग त्यागे बडभागा, तिनके इन्द्राद्रिक पद लागा । अछताहून तजे जे मूढा, ते नहिं होय प्रत्त आरूढ़ा ॥ ३३ ॥ करि प्रमाण आजन्म इनका, बहुरि नित्य नियमादि तिनका । गृहपतिके थावरकी हिंसा, इन करि है फुनि तज्या अहिंसा ३४ त्याग बराबर धर्म न कोई, हिंसाको नाशक यह होई। अंग विर्षे नहिं जिनके रङ्गा, तिनके कैसे होय अनङ्गा ॥३५॥ मुख्य बारता त्याग जु भाई, त्याग समान न और बड़ाई। त्याग बगै नहिं सौहु प्रमाणा, तामें इह माझा परवाणा ॥३६॥ भोग अजुक्त न करने कोई, तजन मन बच तन करि सोई। मुक्त मोगको करि परमाणा साहूमें नित नेम वखाणा ॥ ३७॥ नियम करौ जु घरीहि घरीको, त्याग करौ सवही जु हरीको ।