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जन-क्रियाकोष। तिनसों ढक्यौ अहार जो, जीमें सो अविवेक ॥ १ ॥
सुनि चौथो दूषण सुधी, नाम जु अभिषव जास । याको अर्थ अजोगि , जन भरी जिनदास ।। ६२ ॥ अथवा काम उदापका, भोजन अति हि अजोगि। ते कबहुं करने नहीं, बरजी देव अरोगि ।। ६३ ।। बहुरि तजौ बुध पंचमो, अतीचार अघरूप । दुःपको आहार जो अव्रतको ज स्वरूप ।। ६४ ॥ अति दुर्जर आहार जो वस्तु गरिष्ट सु होय । नहीं जोगि जिनवर कहै, तमें धन्नि हैं सोय ।। ६५ ।। कछु पक्यो कछु अपक ही, दुखमों पचे जु कोय । सो नहिं लेवो अत्तनिको, यह जिन आज्ञा होय ।६६ ॥ प्रतीचार पाचो तज्या, व्रत निर्मल है वीर । निर्मल व्रतप्रभावतें, लहै ज्ञान गंभीर ॥ ६७॥
छन्द चाल धरि वरत वारमो मित्रा, जो अतिथिविभाग पवित्रा । इह चौथो शिक्षाबत्ता, जे याकों करें प्रवृत्ता ॥६८ ॥ ते पावें सुर शिव भूती, वा भोगभूमी परसूती। सुनि या ब्रतकी विधि भाई, जा विधि जिनसूत्र बताई ॥ ६८॥ त्रिविधा हि सुपात्रा जगमे, जगको नौका जिनमगमें। महाबत अणुव्रत समदृष्टी, जिनके घट अमृतवृण्टी ॥ ८७॥ तिनको बहुधा भक्तोते, श्रद्धादि गुणनि जुत्ती तें। देवो चउदान सदा जो सो है व्रत द्वादशमो जो ॥ ७० ॥ चउदान सबोंमे सारा, इनसे नहिं दान अपारा।