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जैन-क्रियाकोष । जे सीझे ते लोभ हरि, और न मारिंग होय ।। मोह प्रकृतिमें लोभ सो, और न परबल कोय ॥ ६२ ॥ सर्व गुणनिको शत्रु है, लोभ नाम बलवन्त । ताहि निवारें व्रत ए, करें कर्मको अन्त ।। ६३ ॥ नमस्कार संतोषको, जाहि प्रशंसें धीर ।। जाकी महिमा अगम है, जा सम और न बीर ॥६४ ॥ जानैं श्रीजिनरायज, या व्रतके गुण जेह ।
और न पूरन ना लखै, गणधन आदि जिकेह ।। ६५ ।। हमसे अम्लपमती कहौ, कैसे कहैं बनाय । नमो नमो या व्रत्तको, जो भव पार कराय॥६६॥ सन्तोषी जीवानिको, बार बार परणाम । जिन पायो मंतोष धन, सर्व सुखनिको धाम ॥ ६॥ नहि सन्तोष समान गुरु, धन नहिं या सम और । निर विकलप नहिं या सभा, इह मबको सिरमौर ॥ ६८॥
इति पञ्चमव्रत निरूपण। दया सत्य असतेय अर, ब्रह्मचर्य सन्तोष । इन पाचनिको कर प्रणति, छट्टम ब्रत निरदोष ॥ १६ ॥ भाषो दिसि परिमाण शुभ, लोभ नासिवे काज। जीवदयाके कारणे, उर धरि श्री जिनराज ।। ७०॥ द्वादश ब्रतमे पंच व्रत, सप्त शील परवानि । सप्त शीलमें तीन गुण, चउ शिक्षा व्रत जानि ॥१॥ जैस कोट जु नरके, रक्षा कारण होय । तैसें तरक्षा निमित, शील सप्त ये जोय ।। ७२ ॥