________________
जैन-क्रियाकोष । तहा विराने आतमा, जानै भाव असेस ।। अष्टमि चउदसि सारिखी, परवी और न जानि । आष्टाह्निकसे लोकमें, पर्व न कोइ प्रवानि ।। नंदीसुर सो धाम नहीं, जहा हरख अति होय । नंदादिक वापीन सी, नहीं वापिका कोय ।। नारकसे क्रोधी नहीं, शठ नर सो न गुमान । विकल न पशुगण सारिखे, लोभ न दंभ समान ।। नारकसे न कुरूप कोउ, देवनिसे न सुरूप । नरसे धन्धाधर नहीं, नहिं पशुसे बहुरूप ।। कारण भोग न दानसो, तपसो सुर्ग न मूल । हिंसारम्भ समान नहीं कारण नरक सथूल ।। पशुगति कारण कपटसो, और न सोइ बखान । सरल निगर्व सुभाव सो, नरभव मूल न मान । सुख कारण नहिं शुभ समो, अशुभसम नहिं दुखमूल। नहीं शुद्धसो लोकमे, मोक्ष मूल अनुकूल ॥ पोसह पणिकमणादि सो, शुभाचरण नहिं होइ । विषयकषाय कलकसो अशुभाचरण न कोइ ॥ मातम अनुभव सारिखा, शुद्ध भाव नहीं वीर। नहीं अनुभवी सारिखे, तीन भुवनमें धीर ॥१०॥ नारि समान न नागिनी, नारि समान पिचाश । नारि समान न व्याधि है, रहें मूढजन राचि ।। ब्रह्माज्ञानको विश्वमें, वैरी है विभचार । ब्रह्मचर्य सो मित्र नहीं, इह निश्चे उर धारि॥