________________
६६
जन-क्रियाकोष। नहिं दशलक्षण वर्मसे, जगमें और विधान ॥ क्षमाउत्तमा सारिखौ, और दूसरो नाहिं। दशलक्षणमें मुख्य है, क्रोधहरण जग माहि ॥ नीर न शाति स्वभावसो, अगनि न कोप समान । मान समान न नीचता, नहीं कठोरता आन ।। मानीको मन लोकमें, पाहन तुल्य बखान । मान समान अज्ञान नहीं, भाखें श्रीभगवान || नि गरब भाव समानसो, मद नहिं जगमे और । हरै समस्त कठोरता, है सबको सिरमौर ॥ कीच न कपट समानसो, वक्र न कपट समान । सरल भावसो उज्वल न सूधौ कोइ न आन ॥ ३०॥ आपद लोभ समान नहि, लोभ समान न लाय । लोभ समान न खाड है, दुख औगुन समुदाय ।। नहिं सतोष समान धन, ता सम सुखी न कोय । नहि ना सम अमृत महा, निर्मल गुण है मोय ॥ शुभ नहि निर्मल भावमो, जहा न सशुभ सुभाव । नहीं मलीन परिणामसों, दूजो कोई कुभाव ॥ सन्देह न अयथार्थसो, जाकरि भर्म न जाय । नहीं जथार्थसो लोकमे, निस्सन्देह कहाय ॥ नाहि कलक कषायसो, भाणे श्रीभगवन्त । नि.कलक अकषायसे, करै कर्मको अन्त ।। शुचि नहिं मनशुचि सारिखी, करै जीवको शुद्ध । अशुचि नहीं मन अशुचिसी इह भाणे प्रतिबुद्ध ।