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जैन-क्रियाकोष ।
ता सम वैरागी नहीं, सो भवपार लहेय ॥ कंटक नहिं क्रोधादिसे, चढिजु रहे गिरमान । मुनिवरसे जोधा नहीं, शस्त्र न कुशल समान ॥ भाव समान न भेष है, भाव समान न सेव । भाव समान न लिंग है, भाव समान न देव ॥ ममता-माया रहितसो, उत्तम और न भाव । सोई सुध कहिये महा, वर्जित सकल विभाव ॥ कारण आतमध्यानको, भगवत भक्ति समान । और नहीं मसारमे, इह धारौ मतिवान ॥ विघन हरण मंगल करन, जप सम और न जानि । जप नहिं अजपाजापसो, इह श्रद्धा उर आनि ।। कारण राग विरोधको भाव अशुद्ध जिसौन । कारण सगता भावको विरचित भाव तिसौन ॥ कारण भवन भ्रमणके, नहिं रागादि समान । कारण शिवपुर गमनको नहीं ज्ञानसो आन ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान व्रत ए रतनत्रय जानि । इनसे रतन न लोकमे, ए शिवदायक मानि ॥ १० ॥ निज अवलोकन दर्शना, निज जाने सो ज्ञान । निज स्वरूपको आचरण सो चारित्र निधान ॥ निजगुण निश्चय रतन ये, कहे अभेदस्वरूप । विवहारै नव तत्वकी, श्रद्धा अविचल रूप ॥ तत्वारथ श्रद्धा नसो, सम्यग्दर्शन जानि । नव पदार्थ को जानिवौ सम्यग्यान बखानि ॥