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बारह व्रत वर्णन। घउ दाननसे दान नहि, औषध और अहार। अभयदान अर ज्ञानको, दान कहें गणसार ॥ रागादिक परिहारसो, और न त्याग बखान । त्याग समान न सूरता, इह निश्चे परवान ॥ तप समान नहिं और है, द्वादश माहिं निधान । नहीं ध्यानसो दूसरो, भाणे श्रीभगवान ॥ ध्यान नहीं निज ध्यानसो, जो कैवल्यशरीर । जा प्रमाद भवरूप मिटि, जीव होय चिद्र प ।। क्षीणमोहसे लोकमें ध्यानी और न जानि ॥ कारण आतमध्यानको, मन निश्चलता मानि ।। कारण मन वसिकरणको, नहीं जोगसो और। जोग न निज संजोगसो, है सबको सिरमौर ॥ भोग न निज ग्स भोगसो, जामें नाहिं विजोग। रोग न इन्द्री भोगमो इह भाणे भवि लोग। शोक न चिन्ता सारिखौ, विकलरूप बडरूप । नहि संसय अज्ञानसो, लखौ न चेतन रूप ।। विकलप जाल प्रत्यागसो, और नहीं वैराग। वीतरागसे जगतमें, और नहीं वड़भाग ॥ छती संपदा चक्रिकी, जो त्यागै मतिवंत । ता सम त्यागी और नहि, भाणे श्रीभगवंत ॥१०॥ चाहे अछति भूतिको, करै कल्पना मूढ़। ता सम रागी और नहि, सो सठ विषयारूढ़ नव जोबनमें ब्याह सजि, बालबाह्य प्रत लेय ।