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बारह व्रत वर्णन। नाहिं गणधिपसे महा,-- चरचाकारक जानि । नाहिं सुरधिप सारिखे, अरचाकारक मानि ॥६०॥ गमन न ऊरध गमनसो, नहीं मोक्षसो घाम । रोधक नाहीं कर्मसे, हरो कर्म तजि काम ।। शत्रु न कोई अधर्मसो, मित्र न धर्म समान । धर्म न वस्तुस्वभावसो हिंसा रहित बखान ॥ निज स्वभावको विस्मरण, नहिं ता सम अपराध । साधे केवलभावकों ता सम और न साध ॥ नर देही सम देह नहि,लिङ्ग न पुरुष समान । वेद नहीं नर वेदसो, सुमन समो न सयान ।। त्रम काया सम काय नहि,पंचेन्द्री जा माहिं । पंचेन्द्री नहि मिनषसे जे मुनित्रत घराहिं।। मुनि नहि नदभवमुक्तिसे, जे केवलपद पाय । पहुंचे पचमगति१ महा, चहुंगति भ्रमण नशाय ।। गति नहिं पंचमगति जिसी, जाहि कहै निजधाम । अविनश्वरपुर नाम जो, जो सम नगर न राम ॥ नाहिं सुद्ध उपयोगसो मारग सूधौ होय । नहीं मारग मुक्तिको, भवविरक्तिसो कोय ।। लोक शिखरसो ऊंच नहिं, सबके शिरपर सोय । नहीं रसातल सारिखौ नीचो जगमें जोय ॥ जितमनइन्द्री धीरसे और न घर बखानि ।
विषयी विकलनि सारिखे, और न निच प्रवानि ॥७॥ १मोक्ष।
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