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बारह व्रत वर्णन।
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PARAN
अनुभवसो अमृत नहीं, नहि अमृतसो पान । इन्द्री रसनासी नहीं, रस न शांतिसो आन । मन गुप्तिसी गुप्ति नहिं,चञ्चल मनसो नाहिं । निश्चल मुनिसे और नहिं,नहीं मौन मन माहिं ।। मुनिसे नहिं मतिवंत नर, नहिं चक्रीसे राव । हलधर अर हरि सारिखो, हेतन कहू लखाव ॥ प्रतिहरिसे न हठी भये, हरिसे और न सूर । हरसे तासम धार नहिं, बहु विद्या भरपुर ।। नारदसे न भ्रमंत नर, भ्रमें अढाई दीप। कामदेवसे सुन्दर नर नहिं जिनसे जगदीप ।। जिन-जननी जिनजनकसे, और न गुरुजनजानि । मिष्ट न जिनवानी समा, यह निश्च परमान ॥५०॥ जिनमूरति मूरति न, परमानंद सरूप । जिनसूरतिसी सूरति न,जासम और न रूप ॥ जिनमंदिरसे मंदिर नहीं जिम तनसो न सुगंध । जिनविभूतिसी भूति नहिं,जिन सुतिसो न प्रबंध ।। जिनवरसे न महाबली, जिनवरसे न उदार । जिनवरसे न मनोहरा जिनसे और न सार । चरचा जिनधरचा समा, और न जगमे कोई । अर्चा जिन अर्चा समा, नहीं दूसरी होइ ।। राज न श्रीजिनराजसे,जिनके राग न रोस । ईति भोति नहिं राजमें, नहीं अठारा दोस । से३ इन्द नरिंद सब, भजहिं फणीस मुनीस।