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बारह प्रत वर्णन।
लौकिक बचन कहें नहिं साधु, सब जीवनिके मित्र अगाय । मृषाबाद नहिं बोले रती, सो जिनमारग साचे अती। श्रावककों किंचित आरम्भ, त्यागे कुविसन पापारम्भ । लौकिक बचन कहन जो परै, तो फिर पाप बचन परिहरे। पर उपगार दयाके हेत, कबहुंक किंचित झूठा लेत। जेतौ आटे माहे लोन, ते सौ बोले अथवा मौन । झूठ थकी उबर पर प्रान, तो वह सत्य झूठ परमान । अपने मतलब कारिज झुठ, कबहु न बोले अमृत बूठ ।। प्राण तजै पर सत्य न तौ, यदवा तदवा बचन न भजे। यह देह अर भोगुपभोग, सब ही झूठ गिर्ने जग रोप। परिगृहकी तृष्णा नहिं करै, करि प्रमाण लालच परिहरै। बाप झठको है यह लोभ, याहि तजै पावै बूत शोभ ।। सत्य प्रभाव सुजस अति बधै, सत्य धरै जिन आज्ञा सधै। राजद्वार पंचायति माहि, सत्यवन्त पूजत सक नाहि ।। इन्द्र चन्द्र रबि सुर धरणेंद्र, सत्य बचे अहमिन्द्र मणिन्द्र । करे प्रसंसा उत्तम जानि, इहे सत्य शिवदायक मानि । क्या सत्यमें रच न भेद, ए दोऊ इकरूप अमेद । विपति हरन सुखकरन अपार, याहि धरे ते है भवपार ।। याहि प्रसंसें श्रीजिनराय, सत्य समान न और कहाय । मुक्ति मुक्ति दाता यह धर्म, सत्य बिना सब गनिये मर्म ॥४०॥ अतीचार पाचों सजि सखा, जातें जिन क्व अमृत चखा। तजि मिथ्योपदेश मतिवान, मजि तन मन करि श्रीभगवान ।। देहि मूढ़ मिथ्याउपदेश, तिनमें नाहिं सुगतिको लेश।