Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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[ १५ ] सप ! और कहा है कि वाय तप अन्तरंग तप के परिवहण के लिए ही है, बाचायं समन्तभद्र के शब्दों में -
अध्यात्मिकस्य तपसः परिवहणाम् यदि नप पावन वार में ही रहता है और उनका फेन्द्र फेयन उत्पीटन तक ही मीमित रहता है तो यह जंन दगंन की भाषा मे-'तनुपिशोपण मेव न चाऽपरम्-रीर पोषण मे अधिक पुछ नहीं है । उनमें अन्तरंग जीयन को विशुद्धि-कामं निजंग तो फ्या, पुण्य भी नहीं हो पाता है। और मनी कभी तो यह पाप वध का भी हेतु हो जाना । अन्तम नमत्य की पेतना जागृत हुए बिना जो तप किया जाता है, यह वान ना है, अर्थात् समान पष्ट है-जिनको जेन परम्परा ने भत्मना गी है।
तप का मूल भाव, देह में रहने हुए भी देह वृद्धिमा विगर्जन है। मामा घर में रहता है, पर योई पाप नहीं है, देर में सो देवादिदेर नीदर भी रहे है, केपल शानी भी तमा बन्य गाभर भो । लन मून प्रल दर का नहीं, पेर-युक्षिका है। जात्मानुलक्षी सापक के बनानादि भी अन्तरग समत्व के निमंन प्रकाश में होने है, गनिए ये दबुद्धि विन पाएर आध्यात्मिक प्रतिमा के रहमारे जीवन में आनं पाहिए। मायदे रक्षर भी घर में गृपा पनी पतनम मारमगता को अनुभूति करना। भरा मगती गो पा. सोचता है. पर भूगो . गुडे नही, बाग मगर गो भगी है, मुझे नही। गोन-37 आदि को पीटा भी मगर मो ., मुसे नहीं । मैं मामा ल गानी पुरान fret, ri मा. पीरन मेरा : और न मैं मेरा ।
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