Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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[ १४ ] वह अहिमा एव सयम की साधना के लिए भी अपेक्षित है। विना तप के अहिमा व सत्य मे गरिमा नही आती। इसीलिए मैंने एक जगह लिखा है
-"तप ज्वाला भी है, ज्योति भी । ज्वाला इस अर्थ मे कि मन के चिर सचित विकारों को तप जलाकर भस्म कर डालता है और ज्योति इस अर्थ मे कि तप अन्तर्मन के सघन अन्धकार को नष्ट कर एक दिव्य प्रकाश जगमगा देता है।
तप निग्रह नही, अभिग्रह है। तप दमन नही, शमन है । तप भोजन निरोध ही नहीं, वासना निरोध भी है। तप विना जल का अन्तरग स्नान है, जो जीवन पर से विकारो के मल का कण-कण घोकर साफ कर देता है । ____तप जीवन को सौम्य, स्वच्छ, सात्विक एव सर्वांगपूर्ण वनाने की दिव्य साधना है। यह एक ऐसी अद्भुत साधना है, जिस पर से आध्यात्मिक परिपूर्णता की सिद्धि मिलती है, और अन्त मे साधक जन्म-जरा-मरण के चक्र से विमुक्त होकर परमात्म पद को प्राप्ति करता है।" ___ जैन धर्म, तप के वीज मे से ही अकुरित होने वाला कल्पवृक्ष है । तप के सम्बन्ध मे जितना व्यापक, तलस्पर्शी तथा सर्वग्राही चिन्तन जैन परम्परा मे हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । अन्य परम्पराओ मे प्राय वाह्य (शरीराश्रित) अनशन नादि तपो का ही उल्लेख मिलता है। और वह एक देहदण्ड की स्थिति में ही अटक कर रह जाता है। देह दण्ड-देह उत्पीड़न कभी भी साधना का अग नही बन पाता । अस्तु ।
जैन धर्म ही वह धर्म है, जिसने वाहर मे अनर्गल फैलते और देहोत्पीड़न का रूप लेते वाह्य तप को अन्तर्मुख घारा मे बदला है, आध्यात्मिकता के अमृत स्रोत की ओर मोडा है । उसने आन्तरिक समत्व पर बल दिया है किउत्पीडन यदि अनुभूति मे रहता है तो चेतना दुखाकात रहती है और उस स्थिति मे अन्तरवृत्तियो मे व्याकुलता छायी रहती है। ऐसी स्थिति मे समन्व कैसे रह सकता है, यदि उसे अन्तर चेतना में समाहित न किया जाय ! इमी दृष्टि में जैन धर्म ने तप के दो भेद किये हैं बाह्य तप और अन्तरग