Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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उसकी आधारशिला- तत्त्वमीमांसा और उसकी अन्तिम परिणतिआध्यात्मिकता के दोनों ही पक्ष उससे बिलकुल अछूते रह जाते हैं, जो कि जैनाचार को समझने के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। महत्त्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि यह कहना चाहिए कि अनिवार्य हैं। उनके बिना जैनाचार को पूर्णत: (समग्रतः/सर्वाङ्गीण रूप से) समझा ही नहीं जा सकता।
जिस प्रकार किसी वृक्ष को पूर्णत: समझने के लिए उसके मूल, फल आदि को भी समझना आवश्यक है, मात्र समक्षस्थित वृक्ष भाग को ही समझना पर्याप्त नहीं है, उसी प्रकार जैनाचार को भी पूर्णत: समझने के लिए हमें उसके मूल-स्थानीय जैन तत्त्वमीमांसा को और फल-स्थानीय आध्यात्मिकता को भी समझना अत्यन्त आवश्यक है, मात्र आचार पक्ष को ही समझना पर्याप्त नहीं है।
जिस आचार की आधारशिला जैन तत्त्वमीमांसा नहीं है और जिसका प्रतिफल भी आत्मानुभूति, आत्मलीनता या आध्यात्मिकता नहीं है; उसे वस्तुत: जैनाचार ही नहीं कहा जा सकता। वह तो एक तरह से बे-सिर-पैर की बात हुई।
जैनाचार्यों के अनुसार कोई भी आचार यदि वह तत्त्वज्ञान से रहित है तो मूल-रहित वृक्ष की भाँति असंभव, मिथ्या या बाललीला मात्र है और यदि वह अन्त में साधक को आत्मलीन न कर सके तो फल-रहित वृक्ष की भाँति निष्फल है, निरर्थक है, निरुद्देश्य है। .. इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जैनदर्शन का आचार सिद्धान्त एक ऐसी मध्यस्थित कड़ी है जिसके एक ओर तत्त्वमीमांसा है और दूसरी ओर आध्यात्मिकता, तथा वह
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भास हुश
(XV)
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